बहते आँसू
कोरोना का रोना रोते इंसानों के आँखों से बहते आँसू कह जाते हालातों को बिन बोले। तपती धूप में प्यासे कंठ लिए पाँवों में छाले लिए घर जाने की आस लिए भूखे प्यासे राहगीर चलते जाते मन से जलते जाते?…
इंसानियत का रिश्ता निभाने का वक़्त है हर भूखे को रोटी खिलाने का वक़्त है..।। मजबूर जो बेबस हैं कोरोना की मार से हम साथ उनके हैं ये दिखाने का वक़्त है..।। ये दुःख भी बांट लो चलें मिलजुल कर…
प्रकृति अब खिल रही है कैद करके हमें घरों में वो स्वतंत्र जी रही है कुछ अलग ही रौनक है अब पत्ते-पत्ते में, डाली-डाली में फूल भी खिलखिला रहें है भौंरे भी गा रहें हैं पंछी भी चहचहा रहे हैं…
कैसा यह खेल है जो विधाता ने रचा है। विधाता का खेल तो देखिए कि आज इंसान घरों में कैद है और प्रकृति, पशु-पक्षी सब आजाद हैं। कहीं यह प्रकृति और विधाता का सम्मिलित खेल तो नहीं है, हम इंसानों…
तेरी बनाई इस सृष्टि में भगवान, इंसान अब डरा-डरा सा हैं। कहने को सिर्फ वो जी रहा, लेकिन अंदर से मरा-मरा सा है।। हर जगह सिर्फ मौत की खबरे, सुना पडा ये संसार है। बच गये तो समझो सुन ली…
दिखा रहा अपना रौद्र रूप ये महामारी हैं,गरीब मजदूरों की बढ़ती ये लाचारी हैं।लॉक डाउन के दौरान,फैक्ट्री में फंसे थे मजदूर चार।मालिक मौका देख हो गया फरार,छोड़ दिया तड़पते उन्हें बिना अनाज।भूख ने ले ली उसकी जान,देखने न गया कोई…
आओ दोस्तों मजदूरोंकी दास्तां सुनाती हूँ।दूसरों की छोड़ो मैं खुदमजदूर पिता की बेटी हूँ। ज़िन्दगी के हर उतर चढ़ावको मैंने आँखों से देखा है।भूख से अपनी माँ को पेट मेंगमछा बांधते देखा है। एक-एक रूपये कमाने कादर्द मैं अच्छे से…
जिंदगी सड़कों पर,लाचार बैठी है। अपने घर और काम से,बेजार बैठी है। कोरोना क्या मारेगा।इन जिंदगियों को, जो जिंदगीयां,जिंदगी से लड़ने को,तैयार बैठी हैं । जिंदगी सड़कों पर,लाचार बैठी है। घर -काम से,निकाल दिया इनको,गाड़ी -बसों के लिए,अपने घर तक…
ख्वाब में आते हो,चले भी जाते होगरीबी सहते हो, गरीबी खाते हो ऐ निकलने वालों पथिक तुम सुनोबहुत रोने वालो श्रमिक तुम सुनो तेरे पेट में जो, इक दाना नहींकैसे भूख मिटे, कोई खाना नहींतेरा प्यास बुझे, कतरा पानी नहीं…
भस्म कर दूं स्वयं कोअंगारों को पाल रखूँ सीने में। देश जिनके कर्मों पर खड़ा हैसड़कों पर आज बेबस लाचार रह गया है। मर रहे हैं सड़कों पर इसे कफ़न नसीब कर दोजिंदा ना सही, लाशों को उसके घर वालों…
वो ईफ्तार और शेहरीवो धूप और दुपहरीसब भूल गये मदद को निकल पडे़अम्मी की बनाई रोटीयाआचार और पानीदेख उसे भूखे को होती है परेशानी अल्लाह ने दिया नही ज्यादा उसेकैसे वो करे किसी पर मेहरबानीजो रूखी सूखी मिलीहर भूखे की…
हाँ! मैं मजदूर हूँकड़ी मेहनत करता हूँपसीना बहाता हूँधूप, वर्षा,शीत से लड़ता हूँ हाँ! मैं मजदूर हूँमजदूरी करना मेरा काम हैमेहनत से रोटी खानामेरा धर्म हैराष्ट्र निर्माण में योगदान देता हूँहाँ! मैं मजदूर हूँ कठिन से कठिन कार्यको सरल बना…
चारों ओर से सवालों का बौछार था,अपने ही व्यवस्था से बीमार था,लेकिन रेल की पटरी से उठ खड़ा जवाब तैयार था,मैं मजदूर था साहब!अपने ही घर की छतों से दूर था,बस रोटी के लिए मजबूर था। परिस्थितियों का मारा था,पर…
सोचा नही था कभी ऐसा दिन भी आयेगा,जेल छोड़ घर ही कैदखाना बन जायेगा।मजदूरी करके जब शाम को लौटकर आता थाअपने दोस्तों के साथ चाय पीने जाता थादिनभर के थकान उस पल में भूल जाता थाएक दूसरे के दर्दो का…
औरंगाबाद ट्रेन हादसे में मारे गए सभी मज़दूर भाइयों को भावभीनी श्रद्धांजलि.... गाँव मे नहीं था रोजगार का कोई भी साधन,चला गया था दूर शहर मैं लेकर अपने प्रियजन।दिन भर मजदूरी करता था पैसे चार कमाता था,हर शाम थक हार…
सही माना जाए तो हम सब अकेले हैं और जीवन की उधेड़-बुन में व्यस्त हैं। कलमकार मुकेश बिस्सा की यह कविता पढें। फिरता हूँ अजनबी सा इस माहौल में कौन मुझको शहर में पहचानता है। जो आँसू पी के हँसना…
कलमकार खेम चन्द सभी लोगों को गाँव से जुड़े रहने की सलाह देते हैं। गाँववालों ने ही तो शहर बसाया है फिर क्यों वहां बसने के बाद गाँव भूल जाते हैं? ना छोड़ो घरवार, गांव, कस्बा ये ज़मीन पुश्तैनी ऐही…
ठहर थोड़ा अभी और तूँ सब्र रख चमन होगा गुलजार फिर इत्मिनान रख। नाव भले ही फँस गयी मझधार में जिन्दा रहेगा बस अपना खयाल रख । बेशक कैद सी हो गयी जिन्दगी इश्क का इम्तिहां है खुद पर यकीं…
जिस घर की चारदीवारी में मिल जाये एक संसार वही घर कहलाता है एक सुनहरा परिवार जिस घर में माँ बच्चों को संस्कारों से सजाती है बुराई पर अच्छाई की जीत समझाती है जिस घर में बच्चे पिता को भगवान…
इस सुनसान सड़क में एक कोना हैं चादर से लिपटा हैं कुछ घर सा दिखता हैं इस लॉकडाउन में भी पूरा खुला हैं बिना दिवार का वो महल सा लगता हैं कुछ आवाज़े आती हैं कुछ सिसकियाँ उस कोने में…