पिता एक वो बादल है अमृत भरा वो गागर है
तड़क भड़क कर जो जीवन में मेरे बरस गया
मुझको प्रफुल्लित कर खुद पानी को तरस गया
निज खुशियाँ त्यागी पर हमको खुशियाँ दे गया
कितनी भी लाचारी थी पर कभी हार न मानी थी
मेरे जीवन को हर्षित करने को मन में ठानी थी
तपते अंगारों पर चल कर उसकी राह गुजर गई
मेरे पग में चुभे जो कांटें उसकी आह निकल गई
अपनी हर ख्वाइश तज मेरी फरमाइश पूर्ण किया
जीवन मेरा सफल बना कर लक्ष्य मेरा पूर्ण किया
मेरे खुद के एहसास हैं ये जो मैं तुम्हें बताता हूँ
ऐसे नेक चरित्र मानुष के चरणों में शीश झुकाता हूँ
~ अमित मिश्रा