जब सुबह-सुबह अचानक ही उनसे मुलाक़ात हो जाए तो मन में कई ख़्याल तो ज़रूर आएंगे। रज़ा इलाही की एक गज़ल पढ़िए- “बाद ए शबा”।
न जाने आज क्या बात हो गई
बाद ए सबा थी और उनसे मुलाक़ात हो गई
नज़रों में फिर कुछ बात हो गई
बात ऐसी छिड़ी के बस रात हो गई
गुलों को जो ग़ुरूर था अपने रंग पे
आज किसी के रंग ए आरिज़ से उनकी मात हो गई
हुस्न ए तजल्ली जुगनुओं के साथ हो गई
आसमाँ में भी तारों की बरात हो गई
आँखे एहसास ऐ शब् ए बरात में नम थीं
और क्या खुब हुआ के भरी बरसात हो गई
न जाने आज क्या बात हो गई
बाद ए सबा थी और उनसे मुलाक़ात हो गई
~ रज़ा इलाही
बाद ए सबा (Baad-e-sabaa) = morning breeze;
रंग ए आरिज़ (rang-e-aariz)= colour of face;
हुस्न ए तजल्ली (husn-e-tajalli) = radiance of beauty;
एहसास ऐ शब् ए बरात (ehsaas-e-shab-e-baraat) = feeling of night of happiness
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