हमें पर्यावरण की देखभाल स्वयं ही करनी है, अत: अपने परिसर की सफाई करने में जरा भी शर्म नहीं आनी चाहिए। खेम चंद ने कबाड़ीवाले को संबोधित करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं-
कहते हैं यहाँ लोग हमें कबाड़ उठाने वाले हैं ये कबाड़ी
उनको कौन, कैसे समझाये हम ही तो है आस-पड़ोस पर
पसरी हुयी बोतलों को उठा कर पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखने वाले खिलाड़ी।
पढ़ा लिखा ये जग सारा है पर हो सब तुम बड़े अनाड़ी,
ज्यादा नहीं पोलीथिन और कांच इकट्ठा करके बन जाती है चार पैसा हमारी भी दिहाड़ी।
शख़्स और शख्सियत हम भी रखते हैं सबसे जुगाड़ी,
आँखें हमारी भी भर जाती है देखो सूरत धरा कि हमने कितनी है आज बिगाड़ी।
हिमालय के ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर पसरने लगी है कूड़े-कचरे की परत मोटी,
सांस लेने में हो रही दिक्कत गर्दन पर्यावरण की हमने ही तो है घोटी।
बात नहीं है ये आने वाले वक्त के लिये छोटी,
धन के लालच में मिलावटी हो गई शायद हमारी इंसानियत आज कहीं खोटी।
इकट्ठा करूँगा आपनी आखिरी सांस तक काम मेरा जो कबाड़
चाहे इसे धरा को स्वच्छ सुन्दर रखने के लिये मुझे चलने पड़े कई बखाड़।
यूं ना बाहर फेंका करो सभ्यताओं से सुसज्जित इंसान कबाड़,
वरना पड़ेगी कभी हमें प्रकृति की लताड़।
खेत-खलिहान हो चाहे हो यहाँ छोटा शाड़ह,
पथरीली हो गई मिट्टी और कांच-कचरे से भर गई गाड़ह।
आओ मिलकर कबाड़ी के साथ इस समय का निकालें हम सभी निचोड़,
कांच को यूं ना हर कहीं तू फोड़।
छोटी-छोटी कोशिशों से बनायेंगे जोड़,
उठाओ कबाड़ सभी ये शर्माना तो छोड़।
है मेरी कबाड़ी ये दास्ताँ,
उठाता रहूँगा कबाड़ यहाँ चाहे मिले या मुझे ना मिले जग में पहचान।
~ खेम चन्द
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बखाड़- पहाड़ी जानलेवा रास्ता;
शाड़ह- विस्वा का हिस्सा;
गाड़ह- छोटे खड्ड,नाले