संसार में अपने बहुत सारे शुभचिंतक प्रतीत होते हैं किंतु, उनमें से मतलबी लोगों की पहचान कर पाना मुश्किल होता है। अमित मिश्र भी इसी दुविधा को बयां करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखते हैं-
कोई नहीं यहाँ है अपना कोई नहीं पराया है
निहित स्वार्थ के कारण ही उसने गले लगाया हैहम भी समझ नहीं पाए उसकी मीठी बातों को
वक्त बदलते ही उसने असली रूप दिखाया हैहम भी किये नज़रअंदाज़ उसकी इन बातों को
मुसीबत के पल में उसने हमकोे पीठ दिखाया हैभूल नहीं सकता मैं ऐसे जालिम मक्कारों को
अँधियारी रातों में वो फिर से मिलने आया हैसमझ नहीं आता उसको क्षमा करुँ या नफरत
नया बहाना करके फिर से रिश्ते जोड़ने आया हैटूटे रिश्ते जोड़ने की इनकी तरकीब पुरानी है
झाँसे में मत आना तुम बस बात यही बतानी हैकोई नहीं किसी का ये जग की रीति पुरानी है
कुछ खट्टे एहसासों को अब मुझे भूल जानी है~ अमित मिश्र