आलोक कौशिक की दस रचनाएँ

१) प्रकृति

विध्वंसक धुँध से आच्छादित
दिख रही सृष्टि सर्वत्र
किंतु होता नहीं मानव सचेत
कभी प्रहार से पूर्वत्र

सदियों तक रहकर मौन
प्रकृति सहती अत्याचार
करके क्षमा अपकर्मों को
मानुष से करती प्यार

आता जब भी पराकाष्ठा पर
मनुज का अभिमान
दंडित करती प्रकृति तब
अपराध होता दंडमान

पशु व पादप को धरा पर
देना ही होगा उनका स्थान
करके भक्षण जीवों का
नहीं होता मनुष्य महान


२) पर्यावरण

दे रहे एक-दूसरे को वैसे लोग भी
पर्यावरण दिवस की शुभकामनाएं
जिन्होंने कटवा कर जंगलों को
अपने लिए महल बनवाया

बनकर कवि लिख रहे कविताएं
प्रकृति और पर्यावरण पर वो भी
जिन्होंने अभी तक जीवन में
एक भी वृक्ष नहीं लगाया

कर रहे आयोजन और दे रहे भाषण
पर्यावरण की रक्षा हेतु वैसे लोग भी
जिन्होंने वर्षों तक अपने वाहनों से
सिर्फ़ प्रदूषण ही फैलाया

है मानव वही जिसमें है मानवता
वैसे लोग मानव नहीं हो सकते
जिन्होंने पशु-पंछियों को
अपना आहार बनाया

है मानव का तभी तक अस्तित्व
जब तक यह पर्यावरण सुरक्षित
संतुलन हेतु ही ईश्वर ने पशु को
पादप संग धरा पर बसाया


३) शर्मशार

मानव ही मानवता को शर्मसार करता है
सांप डसने से क्या कभी इंकार करता है

उसको भी सज़ा दो गुनहगार तो वह भी है
जो ज़ुबां और आंखों से बलात्कार करता है

तू ग़ैर है मत देख मेरी बर्बादी के सपने
ऐसा काम सिर्फ़ मेरा रिश्तेदार करता है

देखकर जो नज़रें चुराता था कल तलक
वो भी छुपकर आज मेरा दीदार करता है

दे जाता है दर्द इस दिल को अक़्सर वही
अपना मान जिसपर ऐतबार करता है

मुझको मिटाना तो चाहता है मेरा दुश्मन
लेकिन मेरी ग़ज़लों से वो प्यार करता है


४) जीवन

मिलता है विषाद इसमें
इसमें ही मिलता हर्ष है
कहते हैं इसको जीवन
इसका ही नाम संघर्ष है

दोनों रंगों में यह दिखता
कभी श्याम कभी श्वेत में
कुछ मिलता कुछ खो जाता
रस जीवन का है द्वैत में

लक्ष्य होते हैं पूर्ण कई
थोड़े शेष भी रह जाते हैं
स्वप्न कई सच हो जाते
कुछ नेत्रों से बह जाते हैं

चाहे बिछे हों पथ में कांटे
लगने लगे मार्ग कठिन
पथिक कभी रुकते नहीं
देखकर बाधा व विघ्न

कोई करता प्रेम अपार
हृदय में किसी के कर्ष है
कहते हैं इसको जीवन
इसका ही नाम संघर्ष है


५) बनारस की गली में

बनारस की गली में दिखी एक लड़की
देखते ही सीने में आग एक भड़की

कमर की लचक से मुड़ती थी गंगा
दिखती थी भोली सी पहन के लहंगा
मिलेगी वो फिर से दाईं आंख फड़की
बनारस की गली में…

पुजारी मैं मंदिर का कन्या वो कुआंरी
निंदिया भी आए ना कैसी ये बीमारी
कहूं क्या जब से दिल बनके धड़की
बनारस की गली में…

मालूम ना शहर है घर ना ठिकाना
लगाके ये दिल मैं बना हूं दीवाना
दीदार को अब से खुली रहती खिड़की
बनारस की गली में…


६) बेबसी की आख़िरी रात

बेबसी की आख़िरी रात कभी तो होगी
रहमतों की बरसात कभी तो होगी

जो खो गया था कभी राह-ए-सफ़र में
उस राही से मुलाक़ात कभी तो होगी

हो मुझ पर निगाह-ए-करम तेरी
इबादत में ऐसी बात कभी तो होगी

आऊंगा तेरी चौखट पे मेरे मालिक
मेरे कदमों की बिसात कभी तो होगी

लगेगा ना दिल तेरा कहीं मेरे बिना
इन आंखों से करामात कभी तो होगी

स्वीकार कर सके नाकामी अपनी
हुक्मरानों की औक़ात कभी तो होगी

ना कोई हिन्दू होगा ना मुसलमान
इंसानों की एक जमात कभी तो होगी


७) उनके बगैर ही जीना होगा

वो जो कहते थे कि तुम ना मिले तो ज़हर मुझे पीना होगा
खुश हैं वो कहीं और अब तो उनके बगैर ही जीना होगा

चोट नहीं लगी है दिल पे चीरा लग गया है मेरे दोस्त
सह लूंगा दर्द मगर इस दिल को उनको ही सीना होगा

इश्क़ बहुत था उनको हमसे लेकिन मजबूर थे वो
लगता है शादियों के संग ही बेवफ़ाई का महीना होगा

संभाल कर रखा था हमने उन्हें रूह की गहराइयों में
ज़रा सोचो किस अदा से खुद को उन्होंने हमसे छीना होगा

अश्क़ आंखों से टपक पड़े गालों पर कल जो देखा उनको
और उन्होंने समझा मेरे माथे से लुढ़का पसीना होगा


८) पिता के अश्रू

बहने लगे जब चक्षुओं से
किसी पिता के अश्रु अकारण
समझ लो शैल संतापों का
बना है नयननीर करके रूपांतरण

पुकार रहे व्याकुल होकर
रो रहा तात का अंतःकरण
सुन सकोगे ना श्रुतिपटों से
हिय से तुम करो श्रवण

अंधियारा कर रहे जीवन में
जिनको समझा था किरण
स्पर्श करते नहीं हृदय कभी
छू रहे वो केवल चरण


९) मेरी ज़िंदगी भी हर दर्द सह गई

आशिक़ी हूं मैं किसी और की कह गई
छत से पहले ही दीवार ढह गई
जब से सुलझाया उसके गेसुओं को
ज़िंदगी मेरी उलझ कर रह गई
जो रहती नहीं थी कभी मेरे बग़ैर
वो किसी और का बन कर रह गई
बसाया था जिसे मैंने अपनी आंखों में
वो बेवफा आंसुओं के संग बह गई
जो भी आया सिर्फ़ दर्द ही देकर गया
मेरी ज़िंदगी भी हर दर्द सह गई


१०) पास और दूर

वो जब मेरे पास थी 
थी मेरी ज़िंदगी रुकी हुई 
अब वो मुझसे दूर है 
ज़िंदगी फिर से चल पड़ी 

जब था उसके पास मैं 
मैं नहीं था कहीं भी मुझमें 
अब केवल मैं ही मैं हूँ 
वो कहीं नहीं है मुझमें 

जब थी मेरे पास वो 
था उसे खोने का डर 
खोकर उसको हो गया 
अब हर डर से बेख़बर 


रचना कोड:

SWARACHIT646 – प्रकृति
20FRI00027 – पर्यावरण
SWARACHIT622 – शर्मशार
SWARACHIT1010 – जीवन
SWARACHIT824 – बनारस की गली में
SWARACHIT671 – बेबसी की आखिरी रात
SWARACHIT611 – उनके बगैर ही जीना होगा
SWARACHIT580 – पिता के अश्रू
20FRI00030 – मेरी ज़िंदगी भी हर दर्द सह गई
20THU00424 – पास और दूर

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