खामोश रहूं या बोल दूं

खामोश रहूं या बोल दूं

कभी खामोशी ही जरूरी होती है और कभी-कभी न बोलना शिकायतों को जन्म देता है। यह चुन पाना कि कब बोलना है और कब खामोश रहना है, आपकी समझदारी और परिपक्वता दर्शाता है। कलमकार अनिरूद्ध तिवारी अपनी कविता में इसी कशमकश को लिखते है।

खामोश रहूं या बोल दूं!
या रहने दूं इस सिलसिले को
ये जो हवाओं में फैली खुशबू है,
बताऊं उसे या छोड़ दूं!
किसके द्वारा संदेशा भेजूं !
या खुद बता दूं!
क्या कहूं, बगीचे में वो खूबसूरत फूल!
या आसमान में वो इंद्रधनुष!
सुना है श्रृंगार उसे पसंद है,
सोचता हूं पीली साड़ी उसे उपहार दे दूं,
लेकिन ये भी मुमकिन नहीं
ठीक है कुछ गहराईयां होने देता हूं!
कुछ अनकहे लम्हे को पनपने देता हूं,
खामोशी को अल्फाजों तक पहुंचने देता हूं
तब तक ये सिलसिला यूं ही चलता रहे,
मेरी कविताओं में जिक्र उनका होता रहे।

~ अनिरुद्ध तिवारी

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