कई फ़साने इत्तिफ़ाक़न बन जाते हैं। इत्तिफ़ाक़ की दास्ताँ रज़ा इलाही ने अपनी नज्म में पेश की है, आप भी पढकर अपनी राय वयक्त कीजिये।
किताबों का गिरना भी एक अजब इत्तिफ़ाक़ था
जैसे खुल गया कोई सफ़्हा जु-ए-हयात कादीदार-ए-रुखसार का वो एक अजब इकत्तीसाब था
जैसे मुताला हो कोई मतला-ए-अनवार कामुड़ कर उनका देखना भी एक अजब इन्किशाफ़ था
बयान कर गया रंग-ए-आरिज़ जो हाल इज़्तराब कान जाने वो कैसा अजब एतेमाद-वो-एतिक़ाद था
बन गया फ़साना जो एक इत्तिफ़ाक़न मुलाक़ात का~ रज़ा इलाही
हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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