हमारे भीतर कई विचार और कल्पनाएं जन्म लेतीं रहती हैं। एक कवि इन्ही से प्रेरित होकर कविता को आकार देता है, ये विचार ही उस कविता का परिवार होती हैं। कलमकार शहंशाह गुप्ता ने इसी तरह का भाव अपनी रचना में प्रकट किया है और शीर्षक दिया है- कुटुंब।
विचारों के उन्मादी झरोखों से जब,
मैं अपनी नकली हंसी से तुम्हारा स्वागत करता हूँ,
भ्राता स्वरूप चेतना का अपक्षय होता प्रतीत होता है,
जैसे दीपक के रौशनी में छोटा सा कीड़ा धीरे धीरे जलता जाता है,
और अंततः उसका शारीरिक अपक्षय
उसे विचारों के उन्मादी झरोखों के पीछे का
सत्य दर्शन कराता है,
मेरे संकीर्ण सी सोच का विवेचन,
मुझे नकली हंसी हंसने के
कई लाभकारी दुर्गुणों कि अभिव्यक्ति
सा जान पड़ता है,
मेरा वैचारिक मतभेद ही,
मेरे व्यवहार से कितना भिन्न है,
ये चिंता का विषय सा लगता है,
और मैं नट सा सभी संवेदनाएं
सामने ना कह पाने के कुंठा से ग्रसित
एक बीमार कुरूप देह सा
किसी कोने मे बैठे कवितायें बनाता हूँ,
बाहर कि चहल पहल मुझे व्यथित सी करती है
और ये चिंता मुझे धीरे धीरे
मेरे ही कुटुंब से दूर
कही सोने के खान कि तलाश करने भेज देती है,
जो सिर्फ एक स्वपन है,
जिसका दृष्टा होना भी अपने आप मे एक स्वपन सा लगता है,
कोई क्रांति सी हृदय को कचोटती सी है,
ऐसा जैसे कोई उन्मादी विचार
पुनः कोई झरोखा खोलता है,
और सोने कि हल्की पीली सी
झूठी चमक मेरे उन दो आँखों मे से एक को
सिर्फ कठोरता से दबाने का काम करती है,
दूसरा तो ऐसे भी इन प्रपंचों से हमेशा दूर ही था,
उसका व्यक्तित्व संत सा हो के भी असुरों कि भांति था,
जिसे सराहा भी गया और आलोचना भी हुई,
छोटे छोटे मेरे दोनों पाँवों मे से एक ने,
नकलीयत को असलियत समझ लिया
और मैं भी आलोचना के सागर मे उसे डूबा शायद गहराई नाप रहा था,
मेरे दूसरे पाँवों ने हंस के नकलीयत को
अपना मान लिया था,
वह वही जड़ था,
उसका मेरे हाथों का सहलाना कभी नहीं दिखा,
सिर्फ झिन झीनी भरने पर पीटना याद था,
दूसरे पाँव ने मेरे बेहाल धड़ का विवेचन करने से ज्यादा
उसे संभालना उसे समझना सही माना,
और चुपचाप सारी बातें सुन,
झरोखा बंद कर,
कंबल मुंह तक खींच सो गया,
शायद उसे झरोखे से आते
उन्मादी विचारों से कुछ लेना देना ही नहीं था,
वह अपनी ही कंदई खाई खराब से
उँगलियों के बीच के पोरों को
ही इलाज नहीं कर पा रहा था,
उसपर लगा मलहम शायद उतना कारगर नहीं साबित हो रहा था,
मेरा धड़ जो कई बार मष्तिस्क बनना चाहता था,
मस्तिष्क कि आलोचना कर ता है,
और इसी दंभ मे कि हृदय तो फिर भी उसके पास है,
धीरे धीरे अपनी ही कुंठा से कोने मे बैठ
पन्ने बर्बाद करता रहता है।~ शहंशाह गुप्ता “विराट”
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