अपराध का कड़ा जबाव देने के बजाय हम खामोश हो जाते हैं। यह खामोशी विभागों से लेकर व्यक्तिगत तौर पर हर जगह पसर जाती है जो अपराधियों को सीख नहीं दे पाती। कलमकार खेम चन्द ने इसी समस्या को अपनी कविता में रेखांकित किया है।
आज फिर उन्हें खामोश देखा,
था कभी सपनों में हमने भी होश देखा।
बिखलती-चिलाती मासूमियत कहीं दबा दी,
दरिदों ने फिर बात दरिंदगी की चला ली।
बर्षों बीत गये सजा का कठोर समाधान न मिला,
मुझे बचा सके ऐसा कोई इंसान न मिला।
बिक जाते है इंसान यहाँ,
मुझे कोई पक्का मकान न मिला।
आज जागे हैं, फिर खामोशी दिखेंगी,
बेटी की कहानी न जाने सुरक्षित कौन कलम-ए-न्यायालय लिखेगी?है डर मुझे स्याही फिर कचरे के भाव बिकेगी,
क्योंकि मुझे भूलकर फिर बस्तियों मे खामोशी सबसे सिखेगी।
तख्तियों पर समाजसुधार विचारों को लिखना छोड़ दो,
कागजों को थोडा़ हमारी तरफ भी मोड़ दो।
सजा तो दरिंदों को मौत की लिखी,
फिर हर रोज क्यों देश की गली है चिखी?
सुधार करना है तो बात सुनो,
कोई आँख भी न उठा सके बेटियों पर जाल कुछ उस तरह बुनो।
आ रहा है फिर होश, बस इस बार तुम मत रहना खामोश।~ खेम चंद
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