हम सभी की कोई न कोई ख़्वाहिश होती है, कुछ पूरी हो जाती है तो कई पूरी होने वाली होती हैं। कलमकार रज़ा इलाही ने अपनी नज्म “आरज़ू” में चंद ख़्वाहिशों का जिक्र किया है।
चाँदनी रात में मख़मली राह पर अपना भी एक सफर हो
गुल फ़रोशों की जमाअत में अपना भी एक घर होभुल जाएँ सारे फ़िक्र-ओ-ग़म जिन्हें देख कर
जो ख़ुशबुओं के दरीचे में अपना भी एक हमसफ़र होऐसे दिलकश ख़यालों से खुद को निकालूँ कैसे
इस मदहोश दिल के संभलने की भी कोई ख़बर होइस हसीं ख़्वाब का सफर और कुछ देर तलक तो हो
शायद किसी सुब्ह इसकी ताबीर अपने भी एक नज़र हो~ रज़ा इलाही
हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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