ख़ुदा के बंदे संभल जा

ख़ुदा के बंदे संभल जा

अपनी बुरी हरकतें भी हमें बुरी नहीं लगती है। हम लगातार गलतियाँ करते हैं जिनका अंजाम बहुत बुरा होता है। कलमकार अपरिचित सलमान लिखते हैं हमको ऐसी आदतों पर लगाम लगाने की सख्त जरूरत है; उनकी एक कविता पढ़िए- ख़ुदा के बन्दे संभल जा।

ख़ुदा के बन्दे संभल जा
वक़्त हैं अब भी बदल जा
शहंशाही की आदत भुला के
नफ़रत के बीज़ दफ़ना के
इन्सां बन के दिखा दे और
इंसान के अंदर निहित
इंसानियत को भी दिखा दे

अंग-प्रत्यंग में रक्त का रंग वही
मिट्टी की महक वही
सूर्य भी वही और चांद वही
कण-कण भी, घट-घट वही
वर्ण-अवर्ण से मुक्त
हरि वही और राम वही
करीम वही व रहीम वही

~ कलमकार- अपरिचित सलमान

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