माता-पिता बच्चों की खुशी के लिए न जाने कितना परिश्रम करते हैं। वे हर हाल में उनकी इच्छा पूरी करना और मुस्कुराते हुए देखना चाहते हैं। कलमकार कुमार संदीप की यह कविता पढ़ें और अपने विचार व्यक्त कीजिए।
आँखों में नींद पैरों में थकान है
हर रोज़ सहन करता हूँ
अनगिनत कठिनाईयाँ
मैं हर रोज़ अपना आज
अच्छे कल के लिए
कुर्बान करता हूँ
हाँ मैं पेट की भूख
बच्चों की खुशी के लिए
काम करता हूँ।बॉस की डाँट तोड़ देती है
अंदर तक मुझे
कुछ कह भी नहीं सकता
मैं मजबूर हूँ,
बंधा हूँ वक्त की जंजीरों से
नयन से अश्रु की
धाराएँ बहती है,
मैं कठपुतली बन गया हूँ
हाँ मैं पेट की भूख
बच्चों की खुशी के लिए
काम करता हूँ।तन और मन कभी-कभी
बिल्कुल तोड़ देती है
अंतस तक
तन तनावग्रस्त
मन में अजीब़ बेचैनी रहती है
लौटता हूँ दफ़्तर से जब
करता हूँ ख़ुद से
अनगिनत प्रश्न
हाँ मैं पेट की भूख
बच्चों की खुशी के लिए
काम करता हूँ।न जाने किन
उलझनों में उलझा हूँ
जिंदगी जी तो रहा हूँ,
पर जी रहा हूँ
किसी तरह बस साँसें शेष हैं
मैं अकेला ही नहीं हूँ
जो इन परेशानियों से
जूझ रहा हूँ
मेरे जैसे और भी बहुत से
जूझ रहे हैं
हाँ मैं पेट की भूख
बच्चों की खुशी के लिए
काम करता हूँ।जब लौटता हूँ दफ़्तर से,
देखता हूँ अनगिनत चेहरे
हर चेहरे पर है थकान
चेहरे मुरझाए हुए
हर चेहरे की रंगत असमय ही
गायब़ हो गई है,
जीवन की उलझनों से
हाँ मैं पेट की भूख
बच्चों की खुशी के लिए
काम करता हूँ।~ कुमार संदीप
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