विचार तो स्वतंत्र होते हैं, न चाहते हुए भी तरह तरह के विचार मन में उतपन्न हो जाते हैं। कलमकार अपने विचार और भावों को शब्दों में अपनी कलम से लिखते रहें हैं, किंतु उन्हे भी कभी-कभी सोचना पड़ता है कि ऐसा लिखें कि नहीं। कलमकार गोपेंद्र सिन्हा लिखते हैं कि कलम पर पहरा नहीं होना चाहिए।
कोई उकेर दे ना अंदर की सच्चाई
तकनीकी जमाने में मुमकिन कुछ भी है भाई
कोई राज छुपा है गहरा
कलम पर बैठ गया है पहराबढ़ रही महंगाई
मुमकिन वाली रहनुमाई
निजाम हुआ है बहरा
कलम पर बैठ गया है पहराअर्थव्यवस्था में तंगहाली आई
चौतरफा शुरू हुई खिंचाई
जख्म हुआ है गहरा
कलम पर बैठ गया है पहरारोजगार का तंगहाली
मंद पड़ने लगी खुशहाली
फिर भी उसे दिख रहा हरा हरा
कलम पर बैठ गया है पहराजो अपने इतिहास को भूल जाए
उसे भला कौन समझाए
अक्ल नहीं है बिल्कुल जरा
कलम पर बैठ गया है पहराबच्चों ने नमक रोटी खाई
क्यों लिख दिया सच्चाई
उसका रोम-रोम है लहरा
कलम पर बैठ गया है पहराकिसी के ना होते सियासतदान
कलम के डर से खड़ा रखते कान
मौका पाते घाव देते गहरा
कलम पर लग गया है पहरा~ गोपेंद्र कुमार सिन्हा गौतम
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