कुछ मुलाकातें जेहन से भुलाएँ नहीं जातीं हैं, उनकी छाप इतनी गहरी होती हैं कि दिल अक्सर उनमें खो सा जाता है। कलमकार अनुभव मिश्रा भी एक ऐसी ही मुलाकात को कविता का रूप देकर प्रस्तुत कर रहे हैं।
वो हल्की बारिश, सुनहरा अम्बर,
बहकी बहकी सी थी हवा,
क्या खूब वो मौसम भी था
जब देखा था उसको पहली दफ़ा,वो मदहोश निगाहें, कातिलाना अदाएं,
मुस्कराहट भी बवाल करवा रही थी,
खुली जुल्फों को चेहरे पर सजाकर
मानो भरे बाजार कत्लेआम बरसा रही थी,कुछ पल को तो ठहर सा गया मैं,
मानो हूर सी कोई परी मेरे सामने है,
देखा था एक अर्से पहले जो ख्वाब मैंने,
मानो वो साक्षात मेरे सामने है,किसी गुलाब की पंखुड़ी से
उसके लबों का तो कोई जबाब ही नहीं,
उसकी शरबती आंखों से ही
पी गया मैं कितनी रक्खा उसका भी हिसाब नहीं,यूँ तो कितना सख्त हूँ
फिर भी मोहब्बत में उसकी घिरता जा रहा था,
हैसियत नहीं थी उसके दिल तक जाने की
मोहब्बत का गीत मैं एकतरफ़ा ही गुनगुना रहा था,कोई सपना मिल कर छिनता है जैसे
वास्तव में हम दोनों मिले ही थे ऐसे।~ अनुभव मिश्रा
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