उम्मीद का दीया

एक सवाल कुछ यूँ पूछा पापा ने,
क्यूँ मौन है आज कलम?
क्या दर्द नही होता, इस शायरा को अब?
कैसे बयां करूँ, अंतर्मन का युद्ध
डरती हूँ कैसे संभालेगी, चार पंक्तियाँ मेरे देश का दर्द।
कर हिम्मत करते हैं हाल-ए-दिल बयां,
कि मौन रहना मेरी कलम ने सीखा कहाँ!!

शहर के शहर खड़े हैं गुमसुम,
बस सुन रहा है प्रकृति का हाहाकार।
प्रकृति धर्म और जाति से है परे,
क्यूँ ये छोटी सी बात, तेरी सोच से है परे!!
भगवान ने कहा, तू है मेरी रचना महान
कर रहा है तू, आज उसे ही बदनाम!!
क्यूँ ढूँढें उसे तू बंदे हर धाम में,
वो तो है मुक़ाबिल, मदद करते हर इंसान में!!
उसी को ठुकरा रहे हो, मार रहे हो,
मुँह फेर क्यूँ दूर जा रहे हो!!

जिस ज़मीन पर खड़े हो, करो उसका सम्मान
ज़मीन पर खीच दो लकीरें, कभी बंटते देखा आँसमा?
हाथ थामें खड़े रहो, ये वक्त भी गुज़र जाएगा
बीता दौर फिर आएगा!!
एक उम्मीद का दीया जलाए रखना,
हिन्दूस्तानी हो, हिंदू मुस्लमान ना करना॥

– डां. तृप्ति मित्तल


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