तर्ज़-ए-तकल्लुम

तर्ज़-ए-तकल्लुम

इशारों-इशारों में बड़ी-बड़ी बातें हो जाया करतीं हैं। कलमकार रज़ा इलाही की एक गजल “तर्ज़-ए-तकल्लुम” पढ़िए।

आँखों से कहे कोई, आँखों से सुने कोई
दिल में उतरे कोई, दिल में समाए कोई

बिन लब खोले जब सब कुछ कह जाए कोई
ऐसे तर्ज़-ए-तकल्लुम में जब ग़ज़ल नई हो जाए कोई

हुदूद-ए-अर्बा में सिर्फ और सिर्फ नज़र जब आए कोई
बात समझ में न आए कोई, न बतलाए कोई

ज़िंदगी में ‘रज़ा’ आए ऐसे मराहिल को क्या कहिए
सई-ए-करम फरमाए कोई, समझाए कोई

~ रज़ा इलाही

samaa.e = fit;
tarz-e-takallum = manner of conversation;
huduud-e-aarba = four directions;
maraahil = stages;
sa.i-e-karam = kind effort;

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