वबा ने रौंद डाली है खिलखिलाती खुशियों को
और बेढ़ब सी पसर गई है मुस्कुराती दुनिया
ख़लक को बनाने वाले को क्या है मंज़ूर?
किसी को आसमां भर दिया है किसी को फलक भर भी नहीं
कोई हंसी के यथार्थ में अपना वक्त गुज़ार रहा है
तो कोई सिसकते आंसुओं में रोए जा रहा है
पिंजरे में बन्द कुछ जन्म दिन भी मना रहे है
कुछ ऐसे भी जो भूख से तड़प पछाड़ खा गिर रहे है
छुट्टियों के लिए तरसने वाले लोग छुट्टियों का मज़ा ले रहे है
और जिन्हें कभी नहीं छुट्टी मिली थी
छुट्टियों में पेट चिपकाए जी रहे है
कुछ अपने परिवारों के बीच रहकर खुशी से रो रहे है
कुछ अपने बिलबिलाते तिफ्लों को देख दुखों से रो रहे है
सारी मानवता धंस गई है अपने ही गड्ढों में
और अपनी ही कब्रों में खुद लेटे हुए चिल्ला रहे है
और कफ़न भी कम पड़ जा रही है
हर तरफ अजीबों गरीब मंज़र है ऊंघता हुआ
कुछ माएं कंधों पे लादे गठरी तो कुछ
बेटे बापू की लाठी बन कर भागे जा रहे है
भाई, बहन,भाई, ताई, चाची, चाचा, बच्ची
सभी अपनों के संग भागे जा रहे है
गांव जो, अभी तक दूर था,
जहां कमाने के लिए गए थे, वहीं से भाग रहे है
रोक जाने पर नहीं रुक रहे है और
दावा भी है और पुख्ता सुबूत भी कि
खाना भी है पानी भी है और
सरकार रहने की व्यवस्था भी कर रही है लेकिन
फिर भी लोग चले जा रहे है सारी बंदिशे तोड़
अपनी अपनी अपनी मिट्टी की ओर
इनका कहना है सब तो दे दोगे, सुकून कहां से दोगे?
मेरे लिए नीड़ कहां से दोगे ?
मेरी आत्मिक भूख कैसे मिटाओगे?
जो हाड़ मांस बन तड़फ रही है
पास पास रहना नहीं है और हाथ मिलाना नहीं है
सभी को कहा भी गया है लेकिन कुछ पता नहीं है और
कुछ फिकर नहीं है इन्हे
केवल अपने मुलुक को है बेचैन
जाने के लिए ,कोई पहुंचा दे बस आज! इन्हे
हजारों हज़ारों किमी पैदल भागे जा रहे है और
पैर में हुए छाले का भी परवाह नहीं इन्हें
भूख से परेशान है लेकिन भागे जा रहे है
किस्मत भी क्या क्या गुल खिला रही है
हमेशा की तरह आज भी आपदा में गरीब ही पिस रहा है
दूसरी तरफ वबा से घरों में कैद
कुछ लोग अपने परिवारों संग गरमागरम नाश्ते वास्ते
करके चित्रहार देख कर खिलकला रहे है
गरीबी को ना चिंता खुद की है और अपने हालात की
बस किसी तरह वो रोटी का जुगाड़ कर रहें है
इतना ज़रूर अफसोस कर रहे है ,मुझ गरीबों का क्या होगा?
कितने बाहर अपनी जिंदगी खो चुके है
और कुछ खो दे रहे है दूसरों को बचाने के लिए
ये महामारी मुझे लगता है, इंसानियत के लिए
एक संदेश है और पैग़ाम है
कि तुम ऐ इंसान! सुधर जाओ
मुझे पता है तुम लड़ लोगे और कितने अपनों को
खोकर जीत भी जाओगे लेकिन अगर इस बार नहीं सुधरोगे
तो कुछ अनहोनी हो सकती है भविष्य में
प्रकृति का क्या! वो तो अपनी संतुलन खुद बना लेती है
फिक्र तो तुम्हे करने की जरूरत है मनुष्य!
~ इमरान सम्भलशाही