जब तक अपना कुछ न बिगड़ता है,
तब तक कोई यहाँ न संभलता है।
विपदा भारी जब आती है,
तब होती यहाँ तैयारी है।
नियमों को ताक पर रखने की
अपनी ये पुरानी आदत है।
घर पर रहना है सबको
तो बाहर निकलने की फितरत है।
शहरों तक जब पहुँचा था,
तब हम गाँवों में खुश रहते हैं।
गाँवो में जब पहुँच गया,
फिर भी हम नही चेते हैं।
राजनीति और संप्रदाय के दाँव
में खुद को उलझाए बैठे हैं।
चंद गद्दारों के कारण
हम खतरे में पड़े न चेते हैं।
मंदिर मस्जिद के भगवान को बाँटकर,
धरती के भगवान को भुलाए बैठे हैं।
मुश्किल में है उनकी जान,
जो हमारी जान के खातिर
अपनी जान दाँव पर लगाये बैठे हैं।
अब भी चेतो सम्भल जाओ,
घर मे रहकर देश बचाओ।
~ रूचिका राय