बचपन के वो दिन याद है, जब पूरे साल भर में एक बार हलुआ खाने को पाते थे। वो दिन शबे बारात का होता था। रिवायतों के नाते घरों में चना और सूजी का हलवा बनता था और आज भी बनता है। चना महंगा होने के नाते कम और सूजी सस्ता होने के नाते अधिक बनता है पर अच्छा लगता था चना का हलुआ ही खाने में, स्वादिष्ट और मज़ेदार लेकिन मिलता कम था। तब कहां कोई इतना अमीर होता था कि लोग रोज हलुआ खाए, वो भी मेवे से सनी बनी हो जो। इसी पल को याद करते हुए हम, आज जब अपनी मां से दूर है तो, एक गीत पेश करता हूं, जो मां की याद दिलाएगी कि कैसे वो हलुआ बनाती थी और खिलाती थी।
मां तेरी याद आ रही
आज शबे बारात को
तेरे बनाए हलुए खा
चाट लेता जब हाथ कोपूरे साल इसी आशा में
जीता था शबे बारात आए
मां का बना हलुआ सारा
हो कुटुंब के साथ खाएंलार टपक पड़ते
देख, हलुओं की पारात कोबचपन के वो अपने दिन
कितने प्यारे थे
जब दादा पापा संग भी
अपनी बुआ के दुलारे थेकिसिम किसीम का हलुआ
खा, दिखाते जज़्बात कोसूजी और चना का हलुआ
देख तब ललचाते थे
जब भी हाथ बढ़ाते अपने
डरकर बस घबराते थेतब मां प्यार से हाथ बढ़ाती
हलवा सजी हर पात कोआज भए है दूर बहुत
हम, हलवा नसीब नहीं
ये भी सच है बन्धु मेरे
मां ही, जब करीब नहींमिले भी कैसे, अब हलवा पूड़ी
शबे बरात की रात कोबड़े हो गए है भले सभी हम
व्यंजन का अंबार भी है
खा लो लाख समुंदर सारे
पर मां का, वो प्यार नहींअब तनिक बढ़ा दो, प्यारी अम्मा
लोरी की उस नात को~इमरान संभलशाही