मजदूर

मजदूर

गुनहगार नही जो सजा आज पा रहे
जाने किस ग़ुनाह की कीमत चुका रहे।
दूरिया तोड़ी तय करने निकले रास्ते।
मौत की फिक्र नही बच्चो के वास्ते

कोई नही मददगार आस बस पाव पर
पहले ही जख्म लाखो फिर मार रहे खाव पर।।
आँखों मे अश्क़ है जुबान पर न ला रहे
सजा अमीरों की गरीब क्यो पा रहे।

सरकार न दे कुछ भी मंजूर है उनको
गाँव याद आ रहा वो राह पे निकल पड़े।
राह में है काटे ओर काटो पे पाव है।
काटे को तोड़ के आज उनपे खड़े।।

गम है लाखो लेकिन वो खुशमिजाज है।
हौसला दे रहा कोई तो एजाज़ है।
सर पे बोझ अपना ओर आखो में सपना।
करना पार समंदर ये उनका मिजाज है।

~ महेश ‘माँझी’

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