कवि की प्रसव पीड़ा

कवि की प्रसव पीड़ा

एक कविता को जन्म देने में कवि को किस हालात और विचार मंथन से गुजरना होता है यह कलमकार राजेश्वर प्रसाद अपनी इन पंक्तियों में बता रहें हैं। कवि की प्रसव पीड़ा नामक यह कविता रचनाकार के मन की व्यथा संबोधित कर रही।

शब्द, जब कवि के पेट मे
अर्थ, ग्रहण करने लग जाता है
कवि की व्याकुलता बढ़ जाती है
नजायज औलाद के समान
मन-मस्तिष्क को
बेचैन कर देता है
वह न अपने भावों को
न अपने विचारों को
दूसरों पर प्रकट कर सकता है
पीड़ा
दिन -प्रतिदिन बढ़ती जाती है
कुन्ती के समान
वह, व्यथित होता है
पास वाले को भनक न लग जाये
इसकी चिंता होती है
चूंकि, शब्द
पूर्ण अर्थ ग्रहण नहीं कर सका है
कभी आवेग में शब्द को
गिरा देने की बात सोचता है
क्योंकि ऐसा शब्द
पैदा लेकर भी
अर्थ विहीन हो जाएगा
इसे जीवित ही
कूडे़ के ढ़ेर पर
फेंक देना पड़ेगा
यह शब्द
कुत्ते-बिल्ली का आहार हो जायगा
क्योंकि
कवि के पास
स्वर्ण मंजूषा जो नहीं है
आज के युग में
शब्द या पुत्र
स्वर्ण कवच-कुंडल से
युक्त पैदा नहीं हुआ
तो वह
अद्वितीय क्या?
द्वितीय भी नहीं होगा

~ राजेश्वर प्रसाद

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