ये कैसा आलम है

ये कैसा आलम है

आज इस कोरोना के संकट में लोग साम्प्रदायिकता फैलाकर, जातिवाद और धर्मवाद के नाम लोगों को लड़वाना चाहते हैं, उससे लोगों को सावधान करती एक नज़्म-

ये कैसा आलम है,
यह क्या हो रहा है। 
जिंदा आदमी,
एक बुत को रो रहा है। 
तुम्हीं ने बनाई हैं मूर्तियाँ,
और की बुत परस्ती भी। 
ये कैसा इन्सान है,
लहू अपनों का पी रहा है। 
खुदा भी रो रहा होगा,
अपनी इस करनी पर,
कि जन्नत बनाई,
और जिंदा इन्सान भी उसको
बुत बना दिया मुझे,
मुझे पत्थर में खोज रहा है। 
फिजाओं में कहर
और जहर है हवाओं में आज
आज इन्सान है कि इन्सान पर ही बोझ हो रहा है। 
दिया एक सा रंग लहू का सबको उसने,
फिर भी और वो है कि
हिन्दू और मुसलमान हो रहा है। 
जाहिल है अलग अपनों से बना ली दुनिया
और अलग हो गया वो खुदी से। 
बदी सीख गया है बस,
बद से बदनाम हो रहा है। 
अक्ल से काम लेना होगा हमें,
सियासतों की साजिशों में
किसने तोडी़ हैं मूर्तियाँ,
और कौन जोड़ रहा है। 

~ डाॅ़ भूपेन्द्र हरदेनिया ‘मौलिक’

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