घर

घर

सुबह हुई तो निकले घर से,
शाम हुई तो लौटे घर,
घर में रहकर घरवालों को भूल गया,
ब्यस्त हुए सब, मस्त हुए सब,

घर को, गैराजों में बदल दिया,
बेड़ रोए, टीवी रोए,
रोए घर का हर कोना,
पूछ रहा है कोना-कोना,
क्यों मुझको तुम भूल गए थे?

“कोविड” ने फिर रहना सिखाया,
बाते करना घर से,
चार दिवारों से बना हुआ घर,
घर ही नही है, है सपनो का घर,
बचपन बीता बड़े हुए घर,
बड़े हुए तब भूल गए घर,
समयचक्र ने याद दिलाया फिर वो घर।

~ अतुल चौहान 

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