कुछ वक़्त अब

कुछ वक़्त अब

कुछ वक़्त अब तो ठहर घर में आख़िर क्या है,
जान से बढ़कर और इस दुनिया में रखा क्या है,
जिन बन्द पेटियों में तुम शराब लाते थे,
हां वही है जो अब उनमें लाश आ रहे हैं,
महज़ खेल तेरा ही महंगा था,
बाकी दुनिया में सबकुछ तो सस्ता था,
क्यों शौक ऐसे पाले जो आम नहीं थे,
आज वो खेल लाखों को बर्बाद कर रहे हैं,
महफ़ूज़ ख़ुद को नहीं पा रहे हो आख़िर क्यों,
ग़ैर को करके बर्बाद तुम चैन से नहीं सो रहे हो क्यों?
वीरान कर दिया पूरा का पूरा शहर ही तुमने,
अंज़ाम इसका क्या होगा तुमने सोचा नहीं था क्यों?

~ अजीत कुमार यादव

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