मन में पीड़ा इतनी है, जितना बड़ा है रत्नाकर।
यह सोच कर निकल पड़े, सुकून मिलेगा घर जाकर।
कितनी दूर पैदल चलेंगे, वो हैं निरेहाल।
चेहरे से स्मित है गायब, हालात है खस्ताहाल।
एक बीमारी ऐसी आई मानो वह है डायन।
श्रम साधक मजबूर हो गए करने को पलायन।
सारे सपने टूट गए, जो रखे थे उसने सजाकर।
यह सोच कर निकल पड़े, सुकून मिलेगा घर जाकर।
रोजी – रोटी की चाहत में, मजदूर हुए प्रवास।
पलायन को वो विवश हो गए, मिला ना उन्हें आवास।
मेहनतकश मजदूर घूम रहे, सड़कों पर हजार।
लॉक डाउन हो गए हैं, बंद हुए बाजार।
मंजिल इनकी दूर है, पर यह चलने को मजबूर है।
निकल पड़े ये घर की ओर, करते राम भजन का गायन।
श्रम साधक मजबूर हो गए करने को पलायन।
~ गौतम कुमार कुशवाहा