परशुराम जयंती हिन्दू पंचांग के वैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। इसे “परशुराम द्वादशी” भी कहा जाता है। अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।ऐसा माना जाता है कि इस दिन दिये दान कर्म पुण्य का प्रभाव कभी खत्म नहीं होता। अक्षय तृतीया से त्रेता युग का आरंभ माना जाता है। इस दिन का विशेष महत्व है।
भारत में हिन्दू धर्म को मानने वाले अधिक लोग हैं।मध्य कालीन समय के बाद जब से हिन्दू धर्म का पुनुरोद्धार हुआ है। तब से परशुराम जयंती का महत्व और अधिक बढ़ गया है। इस दिन उपवास के साथ- साथ सर्व ब्राह्मण शोभा – यात्रा ,सत्संग भी सम्पन्न किए जाते हैं।
परशुराम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है।परशु अर्थात “कुल्हाड़ी” तथा “राम”. इन दो शब्दों को मिलाने पर “कुल्हाड़ी के साथ राम” अर्थ निकलता है।जैसे राम, भगवान विष्णु के अवतार हैं।उसी प्रकार परशुराम भी विष्णु के अवतार हैं। इसलिए परशुराम को भी विष्णुजी तथा रामजी के समान शक्तिशाली माना जाता है।परशुराम के अनेक नाम हैं। इन्हें रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी (ऋषि भृगु के वंशज), जमदग्न्य (जमदग्नि के पुत्र) के नाम से भी जाना जाता है।
परशुराम ऋषि जमादग्नि तथा रेणुका के पांचवें पुत्र थे। ऋषि जमादग्नि सप्तऋषि में से एक ऋषि थे।भगवान विष्णु के 6वें अवतार के रूप में परशुराम पृथ्वी पर अवतरित हुए।परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे।हिन्दू धर्म में परशुराम के बारे में यह मान्यता है, कि वे त्रेता युग एवं द्वापर युग से अमर हैं। परशुराम की त्रेता युग दौरान रामायण में तथा द्वापर युग के दौरान महाभारत में अहम भूमिका है।रामायण में सीता के स्वयंवर में भगवान राम द्वारा शिवजी का पिनाक धनुष तोड़ने पर परशुराम सबसे अधिक क्रोधित हुए थे।
परशुराम के जन्म एवं जन्मस्थान के पीछे कई मान्यताएँ एवं अनसुलझे सवाल है।सभी की अलग अलग राय एवं अलग अलग विश्वास हैं।
भार्गव परशुराम को हाइहाया राज्य, जो कि अब मध्य प्रदेश के महेश्वर नर्मदा नदी के किनारे बसा है, वहाँ का तथा वहीं से परशुराम का जन्म भी माना जाता है।एक और मान्यता के अनुसार रेणुका तीर्थ पर परशुराम के जन्म के पूर्व जमदग्नि एवं उनकी पत्नी रेणुका ने शिवजी की तपस्या की।उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिवजी ने वरदान दिया और स्वयं विष्णु ने रेणुका के गर्भ से जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में इस धरती पर जन्म लिया।उन्होनें अपने इस पुत्र का नाम“रामभद्र” रखा।परशुराम के अगले जन्म के पीछे बहुत सी दिलचस्प मान्यता है। ऐसा माना जाता है, कि वे भगवान विष्णु के दसवें अवतार में कल्कि के रूप में फिर एक बार पृथ्वी पर अवतरित होंगे।हिंदुओं के अनुसार यह भगवान विष्णु का धरती पर अंतिम अवतार होगा। इसी के साथ कलियुग की समाप्ति होगी।
परशुराम सप्तऋषि जमदग्नि और रेणुका के सबसे छोटे पुत्र थे।ऋषि जमदग्नि के पिता का नाम ऋषि ऋचिका तथा ऋषि ऋचिका, प्रख्यात संत भृगु के पुत्र थे.ऋषि भृगु के पिता का नाम च्यावणा था। ऋचिका ऋषि धनुर्वेद तथा युद्धकला में अत्यंत निपुण थे। अपने पूर्वजों कि तरह ऋषि जमदग्नि भी युद्ध में कुशल योद्धा थे.जमदग्नि के पांचों पुत्रों वासू, विस्वा वासू, ब्रिहुध्यनु, बृत्वकन्व तथा परशुराम में परशुराम ही सबसे कुशल एवं निपुण योद्धा एवं सभी प्रकार से युद्धकला में दक्ष थे।परशुराम भारद्वाज एवं कश्यप गोत्र के कुलगुरु भी माने जाते हैं।
परशुराम का मुख्य अस्त्र “कुल्हाड़ी” माना जाता है। इसे फारसा, परशु भी कहा जाता है। परशुराम ब्राह्मण कुल में जन्मे तो थे, परंतु उनमे युद्ध आदि में अधिक रुचि थी। इसीलिए उनके पूर्वज च्यावणा, भृगु ने उन्हें भगवान शिव की तपस्या करने की आज्ञा दी।अपने पूर्वजों कि आज्ञा से परशुराम ने शिवजी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। तब परशुराम ने हाथ जोड़कर शिवजी की वंदना करते हुए शिवजी से दिव्य अस्त्र तथा युद्ध में निपुण होने कि कला का वर मांगा।शिवजी ने परशुराम को युद्धकला में निपुणता के लिए उन्हें तीर्थ यात्रा की आज्ञा दी।तब परशुराम ने उड़ीसा के महेन्द्रगिरी के महेंद्र पर्वत पर शिवजी की कठिन एवं घोर तपस्या की।उनकी इस तपस्या से एक बार फिर शिवजी प्रसन्न हुए।उन्होनें परशुराम को वरदान देते हुए कहा कि परशुराम का जन्म धरती के राक्षसों का नाश करने के लिए हुआ है।इसीलिए भगवान शिवजी ने परशुराम को, देवताओं के सभी शत्रु, दैत्य, राक्षस तथा दानवों को मारने में सक्षमता का वरदान दिया।परशुराम युद्धकला में निपुण थे।हिन्दू धर्म में विश्वास रखने वाले ज्ञानी, पंडित कहते हैं कि धरती पर रहने वालों में परशुराम और रावण के पुत्र इंद्रजीत को ही सबसे खतरनाक, अद्वितीय और शक्तिशाली अस्त्र – ब्रह्मांड अस्त्र, वैष्णव अस्त्र तथा पशुपत अस्त्र प्राप्त थे.परशुराम शिवजी के उपासक थे। उन्होनें सबसे कठिन युद्धकला “कलारिपायट्टू” की शिक्षा शिवजी से ही प्राप्त की। शिवजी की कृपा से उन्हें कई देवताओं के दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी प्राप्त हुए थे।“विजया” उनका धनुष कमान था, जो उन्हें शिवजी ने प्रदान किया था।
इस दिन शोभायात्रा निकाली जाती हैं।इस शोभायात्रा में भगवान परशुराम को मानने वाले सभी हिन्दू, ब्राह्मण वर्ग के लोग भारी से भारी संख्या में शामिल होते हैं।परशुराम भगवान के नाम पर उनके मंदिरों में हवन – पूजन का आयोजन किया जाता है। इस दिन अक्षय तृतीया भी मनाई जाती है।सभी लोग पूजन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और दान आदि करते हैं।भगवान परशुराम के नाम पर भक्तगण जगह जगह भंडारे का आयोजन करते है और सभी श्रद्धालु इस भोजन प्रसादी का लाभ उठाते हैं।कुछ लोग इस दिन उपवास रख कर वीर एवं निडर ब्राह्मण रूप भगवान परशुराम की तरह पुत्र की कामना करते हैं। वे मानते हैं कि परशुरामजी के आशीर्वाद से उनका पुत्र पराक्रमी होगा।वराह पुराण के अनुसार, इस दिन उपवास रखने एवं परशुराम को पूजने से अगले जन्म में राजा बनने का योग प्राप्त होता है।
इस वर्ष 2020 में परशुराम जयंती 25 मई अप्रैल को आने वाली है। यह दिन सिंहस्थ के पर्व का भी है। इसलिए इस दिन की मान्यता और भी अधिक बढ़ जाती है। परशुराम जयंती पर परशुराम कुंड जिला, अरुणाचल प्रदेश मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है, कि इस कुंड में अपनी माता का वध करने के बाद परशुराम ने यहाँ स्नान कर अपने पाप का प्रायश्चित किया था।
माता-पिता के प्रति समर्पण, जिसके लिए उन्होंने अपनी माता का वध किया था। परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे। वे अपने माता–पिता के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे। एक बार परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका पर क्रोधित हुए। रेणुका एक बार मिट्टी के घड़े को लेकर पानी भरने नदी किनारे गयी, किन्तु नदी किनारे कुछ देवताओं के आने से उन्हें आश्रम लौटने में देरी हो गयी। ऋषि जमदग्नि ने अपनी शक्ति से रेणुका के देर से आने का कारण जान लिया और वे उन पर अधिक क्रोधित हुए।उन्होने क्रोध में आ कर अपने सभी पुत्रों को बुला कर अपनी माता का वध करने की आज्ञा दी।किन्तु ऋषि के चारों पुत्र वासु, विस्वा वासु, बृहुध्यणु, ब्रूत्वकन्व ने अपनी माता के प्रति प्रेम भाव व्यक्त करते हुए, अपने पिता की आज्ञा को मानने से इंकार कर दिया।इससे ऋषि जमदग्नि ने क्रोधवश अपने सभी पुत्रों को पत्थर बनने का श्राप दे दिया।इसके बाद ऋषि जमदग्नि ने परशुराम को अपनी माता का वध करने की आज्ञा दी।परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपना अस्त्र फरसा उठाया, और उनके चरणों में सिर नवाकर तुरंत ही अपनी माता रेणुका का वध कर दिया। इस पर जमदग्नि अपने पुत्र से संतुष्ट हुए एवं उन्होने परशुराम से मनचाहा वरदान मांगने को कहा। परशुराम ने बड़ी ही चतुराई एवं विवेक से अपनी माता रेणुका तथा अपने भाइयों के प्रेमवश हो कर सभी को पुनः जीवित करने का वरदान मांग लिया। उनके पिता ने उनके वरदान को पूर्ण करते हुए पत्नी रेणुका तथा चारों पुत्रों को फिर से नवजीवन प्रदान किया।ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र परशुराम से बहुत प्रसन्न हुए। परशुराम ने अपने माता – पिता के प्रति अपने प्रेम एवं समर्पण की मिसाल कायम की।
परशुराम जी ने 21 बार धरती को क्षत्रिय विहीन किया। माना जाता है कि क्षत्रियों को खत्म करने की सौगंध ली थी ।एक बार पृथ्वी पर क्षत्रियों के राजा कर्तावीर्य सहश्रजून ने परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि तथा उनकी कामधेनु गाय का वध कर दिया।इससे परशुराम को बहुत क्रोध आया एवं परशुराम ने क्रोध में सभी क्षत्रियों को मारने एवं पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं की तानाशाही से मुक्त करने की शपथ ले ली। जब पृथ्वी पर सभी क्षत्रियों ने यह कसम सुनी, तब वे पृथ्वी छोड़ – छोड़ कर भागने लगे. पृथ्वी की रक्षा के लिए कोई भी क्षत्रिय नहीं बचा।इसलिए कश्यप मुनि ने परशुराम को पृथ्वी छोड़ने का आदेश दे दिया। मुनि कश्यप की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम महेन्द्रगिरी के महेंद्र पर्वत पर रहने चले गए।वहाँ उन्होने कई वर्ष तक तपस्या की ।तब से ले कर आजतक महेन्द्रगिरी को परशुराम का निवास स्थान माना जाता है। महेन्द्रगिरी, उड़ीसा के गजपति जिले में स्थित है।
वैदिक काल के अंत के दौरान परशुराम योद्धा से सन्यासी बन गए थे।उन्होने कई जगह अपनी तपस्या प्रारम्भ की। उड़ीसा के महेन्द्रगिरी में तो आज भी उनकी उपस्थिती मानी जाती है। पुराणों में प्रसिद्ध संत व्यास, अश्वस्थामा के साथ साथ परशुराम को भी कलियुग में ऋषि के रूप में पूजा जाता है।उन्हें आंठवें मानवतारा के रूप में सप्तऋषि के रूप में गिना जाता है।
~ लेखिका- प्रीति शर्मा “असीम”
नालागढ़, हिमाचल प्रदेश