ये राहें

ये राहें

हम अपने रास्ते खुद ही चुनते हैं जिसपर चलते चलते कभी कभी अपनी मंजिल पा जाते हैं तो कभी बड़ी उलझनों में घिर जाते हैं। कलमकर मुकेश बिस्सा इन राहों के बारे में अपनी कविता में भी बता रहें हैं।

कितनी अजीब होती हैं
हमारे पैरों के नीचे
इनके मुकद्दर होते हैं
मिल जाती है
मंजिलें इन पर चलकर
सबका साथ देकर भी
हो जाती है एकाकी
न कही रुकावट
न कहीं जमावट
न कहीं
यादों का बिखराव
मिलते हैं कभी
बिछड़ जाते हैं कभी
इनसे मिलता न कोई
बिछड़ पाते हैं न कोई
नहीं दिखता सैलाब में
कोई चेहरा कोई हाथ
दे सके जो इनका
दम कदम साथ
सोचता हूँ अक्सर
इन रास्तों पर चलके
बनना चाहता हूं
मैं इनका हमराही

~ मुकेश बिस्सा

Leave a Reply


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.