कलमकार शिवम तिवारी प्रतापगढ़ी विद्यार्थी जीवन पर कुछ पंक्तियाँ लिखकर प्रस्तुत की हैं। उन्होंने अपना अनुभव साझा किया है इस कविता में, आप भी पढें।
जिंदगी की किताब,
कब पलट गई,
पता ही नहीं चला।
कब सपनों के लिए,
अपना घर छोड़ दिया
पता ही नहीं चला।।गांव से चला था,
कब शहर आ गया
पता ही नहीं चला।
पैदल दौड़ने वाला बच्चा कब,
बड़े-बड़े सपने देखने लगा
पता ही नहीं चला।।जिंदगी को चाव से जीने वाला,
कब जिंदगी जीना भूल गया,
पता ही नहीं चला।
मां की गोद में सोने वाले की,
कब नींद उड़ गई,
पता ही नहीं चला।।जिम्मेदारी के बोझ ने,
कब जिम्मेदार बना दिया,
पता ही नहीं चला।
पूरे परिवार के साथ रहने वाले,
कब अकेले हो गए,
पता ही नहीं चला।।~ शिवम तिवारी