तुम्हारी जीने की चाहत देखकर अच्छा लगा,
तुम्हरा घर में यू डर कर कैद हो जाना अच्छा लगा,
खुद को खुदा समझने वाले मौत की आहट सुनकर ही डर गए,
तुम्हारा खुद को मर्द कहने पर थोड़ा भद्दा लगा,
इंसानियत भी तुम में कहा जिंदा है अब जो तुम इंसान हो,
मगर उनका दूसरो के काम आना हमे अच्छा लगा,
हाल क्या से क्या हो गया है इस जहां का देख रहे हो न,
इस जहां को अपनी रियासत समझने वालों,
फखत तुम यहां सिर्फ मेहमान हो देख रहे हो न।
क्यों दूसरो के दुश्मन बन रहे हो सोच रहे हो यहां,
मजहबी की आग में खुद को क्यों झोंक रहे हो यहां।
हो बुरा किसी का ऐसा कुछ करो तुम अब यहां न,
हो रिश्ता हर एक से इस जहां में कुछ ऐसा करो न।
~ अजीत यादव