१. माँ का थैला
हर बार की तरह माँ चूल्हे के पास बैठकर आटा गूँथने में लग गई थी, मन ही मन कुछ बुदबुदाए जा रही थी और हाथ के कोहनी से बार बार आटा गूँथने के दौरान माथे पर झलक रही पसीने की बूंदे पोछे जा रही थी। पचपन बरस की अपनी इस उम्र में भी माँ अपने बेटे के ख़ातिर, इलाहाबाद पढ़ने के लिए जब भी उसे जाना होता था तो रस्ते में भूख न लगे और पहुँच जाने के बाद भी हफ्ते-दस दिन खाने के लिए, खाने वाली मीठी तीखी चीज़ें ज़रूर बना कर दे देती थी। माँ की ममता की इस निर्बाध झरने को देखकर, बेटा! कभी अपनी माँ के इस प्रगाढ़ प्रेम के अमर सागर को महसूस करता था या नही, माँ इस बात से बिल्कुल बेख़बर रहती थी। उसे तो बस बना वना कर कपड़े में बांधकर बेटे के बैग में पहले से रख देने से मतलब था। बेटा झुंझला के कभी कभार बोल देता ज़रूर था कि पता नही, क्या क्या भर देती हो तुम कि रास्ते भर धोना पड़ता है मुझे। ज़रूरी है क्या? जाते जवाते कुछ भी भर देती हो लेकिन माँ अपने ममत्व के साथ अपना फर्ज अदा करती हुई, उसकी सारी बकबक को सुनकर भी अनसुना करती हुई अपनी कोमलतम ममतामयी मुस्कुराहटों के साये में स्वादिष्ट पकवानों की खुशबुओं संग सदा विदा कर देने में दिलचस्पी रखती थी।
इलाहाबाद निकलने के पहले बेटा माँ को पुनः चूल्हे के पास आटा गूँथते देखकर आज बिल्कुल भड़क गया था। “गुस्से वाले अंदाज़ में बोल गया था कि माई! कितनी बार बोला कि मेरे लिए इतना परेशान न हुआ करो। हम वहां भूखे नही मरते है और न ही मुझे कोई दिक्कत होती है। तुम हमेशा बीमार रहती हो और ऊपर से मेरे लिए क्या क्या चीज़ें बना डालो, तुम्हारा पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है। क्यो? जितने दिन गाँव मे रहता हूँ, मुझे कम खिलाती हो क्या? पागल ऐसा बनी रहती हो, जैसे हम इलाहाबाद में भूखे ही रहते है सदा।”
“माँ अपने बेटे की इस तूफानी तेवर को सुनते हुए भी काम मे मशगूल थी। मन ही मन सोचते हुए बुदबुदा रही थी कि मेरा बबलू आज इतना सयाना हो गया है कि अपनी माँ को ही उपदेश दिए पड़ा है। अपने माँ के हाथ की बनी चीज़े कभी छीन छीनकर कर खाता था और आज अपने माँ की कितनी फिक्र कर रहा है ताकि इसकी माँ बीमार न पड़ जाए। आख़िर क्यो न करे फ़िक्र, माँ जो हूँ उसकी। माँ उसकी बीमार जो रहती है हमेशा, बबलू बिल्कुल नही चाहता है कि माँ कुछ भी काम करे। यही तो चाहता है कि मेरी माँ सदा आराम करें। आखिर क्या बुरा चाहता है वो, ठीक ही सोचता है वो मेरे लिए, बबलू की कोई बहन भी तो नही है न, जो उसकी मां के साथ हाथ बटाये। भला क्यो न फिक्र करे मेरा लाल अपनी इस बीमार माँ की।”
बेटा तनक कर पुनः बोल उठा था कि बनाओ, मीठे तीखे पकवान, देखते है, कैसे तुम इस बार मेरे बैग में डालती हो। माई! फिर बोल रहा हूँ कि रोक लो अपना हाथ, इस बार मैं कुछ ले जाने वाला नही हूँ। दोगी तो फिर भी नही ले जाऊंगा और अगर दे भी दोगी जबरदस्ती तो बीच रास्ते मे फेंक कर चला जाऊंगा। बेटा बड़बड़ करता हुआ घर से बाहर निकल गया था।
कुछ घण्टे बाद बबलू जब इलाहाबाद जाने लगा तो पिता जी का पाँव छूकर आशीर्वाद लिया और माँ के पास आशीर्वाद लेने पहुचा ही था तो माँ फौरन एक सुंदर थैले में रखा पराठा व कुछ मीठी चीज़े बबलू के हाथ मे थमा दी और बोली बेटा! इसे रख लो, रास्ते मे भूख लगेगी तो खा लेना। बेटा गुस्से में आख़िर बोल ही दिया, हम नही ले जाएंगे, मुझे रास्ते मे भूख ऊख नही लगती है और तुरंत चला गया।
माँ हल्की सी ज़रूर मायूस हुई लेकिन अपने बबलू के इस बर्ताव पर बहुत अधिक परेशान न हुई क्योकि वो समझती थी अपने करेजे की परेशानियों को.. आख़िर माँ थी जो वो.. उस पगला की.. बबलू अपनी माँ को बिल्कुल नही परेशान करना चाहता था। तभी तो अपनी मां की हाथ का बना पकवान लिए बिना व नरम लहज़े में बात किये बिना ही आज पहली बार इलाहाबाद चला गया था। बेटा अपनी मां के हाथ से थैला थामे वगैर ही झटके में निकल ज़रूर गया था लेकिन बस स्टॉप तक पहुँचते पहुँचते अपनी मां को जाने-अनजाने जो तकलीफ दे आया था, उस तकलीफ को अंदर ही अंदर बर्दाश्त नही कर पा रहा था। न एक कदम आगे बढ़ पा रहा था और न कुछ कदम वापस आकर अपनी मां के हाथ से थैला लेने वापस आ पा रहा था। बबलू तो बस चाह रहा था कि मेरी नाराजगी शायद मां को आगे से आराम दे और भविष्य में मेरे लिए अधिक परेशान न हुआ करेगी।
यही सब सोच विचार कर ही रहा था कि एकाएक पीछे से एक आवाज़ आई, बबलू भय्या, ये लीजिये आपकी अम्मी ने एक थैला भिजवाई है, जो थैला आप भूलकर आ गए थे। थैला देखते ही बबलू के मुख पर संतोष व पश्चाताप के भाव जागृति ही हो पाई थी कि इलाहाबाद वाली बस आ गयी और तुरंत बस में चढ़ गया। बस चल पड़ी थी। रास्ते भर बबलू भीगी पलको के संग धलकती आंसुओं को पीते हुए अपनी ममतामयी माँ को याद करता हुआ इलाहाबाद के रस्ते मुसाफ़िर हो गया था। और उधर, मां दरवाजे पर टकटकी लगाए हुए अभी तक इस आस में खड़ी थी कि चिंटू शीघ्र आकर बता दे कि बबलू थैला ले लिया है।