सोलह मजदूरों को ट्रेन से रौंद दिया जाना और उनका अपने घर ना पहुंच पाना, बहुत दर्दनाक व वीभत्स घटना है। जो भी देखा सुना, जाना, सबके रूह कांप गए। रात भर एक भयावह सपने की तरह सभी को परेशान करता रहा। मजदूर भाइयों की बेबासिया सरकारी अंग से कटकर काल के गाल में चली गई। वो इसलिए सोए थे कि लॉकडाउन में ट्रेनें बन्द है, कौन सी ट्रेन आने वाली है? भूखे पेट, नंगे बदन व सूखी रोटियों के साथ अपने मुलुक जा रहे थे। कहने को राष्ट्र निर्माता व श्रम साधक है लेकिन ये बेचारे इतना भी नहीं सोचे थे कि एक झपकी उन्हें मौत के मुंह में लील लेगी और व्यवस्था के जर्जर मकान की चूती छत सरीखा समाज को आइना दिखा देगी। इन्हीं कुछ दर्द भरे मन्तव्यों को पिरोते हुए एक गीत लिखा हूं। पेश है, आप भी पढ़ें.. अगर आंख से आंसू निकलने लगे तो निकलने देना, रोकिएगा मत, क्योंकि आंसू निकलना भी जरूरी है।
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
काल भी सारी निगल गई है, श्रम साधकों की बोटियां
हे बटोही! क्यों चलें तुम?
पथिक बन पटरी पर
खुद भी बोझा बने व
कांधा बांधे गठरी पर
फूल बरसते योद्धाओं पर
है पत्थर तुझे नसीब हुआ
थके हार कर सो जाने पर
मौत तेरे करीब हुआ
कट कर बदन का चीथड़ा हुआ, काम ना आई सोंटियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
सड़क बनाए थे जो मिलके
वहीं सड़क भी, काम ना आई
कैसे चलते? अपने पथ पर!
जेब में नहीं जब, इक्को पाई
उधर प्रशासन डंडा मारे
इधर बोलता मुर्गा बन
धिक्करों में लपेट रहे जब
क्यों दिल ना बोले, दुर्गा बन
हाय! मूली समान कट गए, सभी यार लंगोटिया
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
हे राजा! काली ज़बान से
मत बोलो तुम, अब निर्माता
तुम तो यारा, तोंद निकाले
बने इनके हो, भग्य विधाता
इनके पांव में छाले पड़ गए
अनंत मेवाद भी बहती है
तेरा पांव तो फूलों संग
आंगन में ही विचरती है
पेट काट के हर श्रम साधक, हाय! कैसे कैसे जिया
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
सब बिरने तो चले गए है
दुनिया छोड़ के पटरी से
सूखी हड्डी बदन लिए थे
सूखे बांस की लकड़ी से
अरमानों का बोझ लिए वो
सरपट घर को भागे थे
प्रभात वेला में नीद के पहले
काली रात जागे थे
उनको कहां पता था भाई, छिन जाएगी बोरियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
नहीं भांपे थे, ये श्रम निर्माता
गिट्टी पाथर चिता है
उन छौनन का अब क्या होगा?
जिनके वही पिता है
न घर में दाना, जेब में पौने
परदेश पराया बना है
भूख गरीबी में सदियों से
मिट्टी पानी सना है
लॉकडाउन में ना सोचे थे, कब्रगाह है पटरियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
सूखी रोटी खा ना पाए
उसे शोषक सब, छीन लिया
मौत की खटिया सुला सुलाकर
कुटिया भी, दीन हीन किया
हे!ईश्वर तू भी अजब है
बेसहारों को, बेसहारा किया
आज वबा जब फैल गई है
तू भी इन्हे, किनारा किया
उन बिरनन को छोड़ तो देते, जो सुनते थे लोरियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
चीख ना पाए मौत के पहले
मौन ब्रत सा, चले गए
ट्रेन की आहट, भांप ना पाए
जिनगी, चक्के तले गए
सूखी रोटी बयां कर रही
बेबसी कहानियां
अब क्या होगा? सूखी रोटी का
जब चली गई, जवानियां
काम न धंधा बही ना खाता, अब खेलेंगे गोटियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
जिनको जीवन दान मिला था
देह सुन्न सा, पथरा गया है
मुंह कैसे दिखाएं घर को?
मन ही मन घबरा गया है
मांस के लोथड़े छिटक गए थे
कपड़ों का कुछ पता नहीं
कैसे बोलूंगा? हे! माई अब्बा
अपनी कोई खता नहीं
सांझ ना सूंघा चरग मात्र भी, जो है छनी जलेबियां
बिखर गई है जग में सारा, मजदूरों की रोटियां
~ इमरान सम्भलशाही