नक़ाब शब्द ऐसा है जिसे आप अपनी शब्दावली में सजाकर मोहब्बती क़सीदे पढ़ते है वही दूसरी तरफ़ किसी के चरित्र की धज्जियाँ भीउड़ाते है। नक़ाब उस दौर में मतलब कोरोना त्रासदी से पूर्व और अब जब ये चरम पे है तो कैसा है उसके साथ तब और अब में क्या परिवर्तन हुए है, एक छोटी सी कोशिश, इस अपनी कविता के माध्यम से अपने विचार आप तक प्रेषित करता हूँ, आइए जुड़ते है….
वो दौर नक़ाबे फ़ितरत था, ये दौर नक़ाबे कुदरत है।
वो दौर जो कुछ बेगाना था, इस दौर में अपनापन सा है।
वो दौर दूरियों का जो था, ये दौर निकट अपनो से है।
वो दौर बहुत रफ़्तार में था, ये दौर बहुत ठहरा सा है।
वो दौर बहुत उल्फत में था, ये दौर बहुत सुलझा सा है।
वो दौर बहा दरिया सा है, ये दौर थमा तालाब सा है।
वो दौर बहुत उलझन में था, ये दौर बहुत चिंतन में है।
वो दौर था स्वार्थ भरा बिल्कुल, ये दौर निरा परमार्थी है।
वो दौर बहुत अपराधी था, ये दौर बहुत सुभचिंतक है।
वो दौर बहुत ही सयाना था, इस दौर भरा लड़कपन है।
वो दौर बहुत परतंत्र सा था, ये दौर बड़ा स्वतंत्र सा है।
वो दौर बहुत आज़माता था, ये दौर जो बहुत निभाता है।
वो दौर बहुत अलगाव में था, ये दौर बहुत लगाव में है।
वो दौर जो बहुत जमा किए था, ये दौर बड़ा खर्चीला है।
वो दौर बड़ा ग़मग़ीन सा था, ये दौर बड़ा ख़ुशनुमा सा है
वो दौर बड़ा बेग़ैरत था, ये दौर थोड़ा हैरत में है।
वो दौर बड़ा घुमक्कड़ था, ये दौर सिमट के घरों में है।
उस दौर में साँस को फ़ुरसत कहा, ये दौर फ़ुरसती साँसो का है।
उस दौर बहुत कुछ छूट गया, ये दौर उसे पा लेने का है।
वो दौर गया, ये दौर जो है, दौर ए फ़ितरत निकल जाना ही है।
उस दौर में क्या अर्जित था किया, इस दौर में क्या विसर्जित हैं किया।
ये गणित लगाते ही सबका, जीवन यूँही कट जाना है।
वो दौर नक़ाबे फ़ितरत था, ये दौर नक़ाबे कुदरत है।~ भरत कुमार दीक्षित ”लकी”