कुमुदिनी बसंत

कुमुदिनी बसंत

बसंत ऋतु का वर्णन कलमकार इमरान संभलशाही अपने शब्दों में कुछ इस तरह करते हैं।

संध्या सुंदरी
अपने आगोश में ले
बस सुता देना चाहती है
वृक्ष की शाखाओं तले
कुमुदिनी वसंत को

और टहनियों की भीनी खुशबू संग
अरुण वक्ष की श्वेत कणिका
धार पा दुहिता
करुणामयी धरा के आंचल सरीखी
गुप अंधेरी रात में विटप की सरसराती हवाओं
में मिट खो जाना चाहती है

शैशवाकाल छोड़
अब पहुंच चुकी है तनया
किशोरावस्था में
चहुंओर पुकार हुई तब
हे! अल्हन बसंत!
हे! परागमय बसंत

और अकस्मात
आषाढ़ सरीखा एक तेज बवंडर युक्त तूफ़ान
आकर कोमल फ़ाहा सदृश
जवानी की दहलीज को तितर बितर कर देती है

हाय! हां अपनी बसंत रुग्ण सय्या पर
मादकहीन हो
विहंगम शमशान भांति
अधजली मांसल टुकड़ा बन
अपनी अल्हड़ जवानी में
ही एहसास कर रही है
भंग कौमार्य से भी बदतर ज़िन्दगी

हाय री! असहनीय पीड़ा से ग्रस्त दुःखी
मेरी बसंत और तेरी किस्मत!
मत रो! ना ना!
ये झंझावती आषाढ़ सरीखा मानुष ही
ऐसा है।
नहीं समझेगा! नहीं समझेगा!

~ इमरान सम्भलशाही

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“इस कविता के माध्यम से किसी मां की प्यारी बिटिया किस प्रकार समाज की दरिंदगी में मिट खो जाती है। उसका चित्रण करने का प्रयास किया है। संध्या सुंदरी को मां का उपमा मानकर उनकी बाहों को शाखा की उपमा दे, बसंत को बेटी मानकर पूरी कविता की रचना की है। जिस प्रकार बसंत आने से सारा समाज किसलय हो जाता है, ठीक उसी प्रकार हमारी बेटियां परिवार में जन्म लेती ही, घर में खुशियां भर देती है। बाद में यही समाज दोषी होता है,जिसके कारण बेटियां पिस जाती है। ” ~ इमरान सम्भलशाही