जन्म, जीवन और मृत्यु-दो भाई और एक बहन। कहने को तो हम जन्म और जीवन को जुड़वा भाई कह सकतें हैं पर वास्तव में जीवन लोगों के पास जन्म के कुछ महीने पहले ही आ जाता है लेकिन पहले जहाँ इसके केवल होने का अहसास कर पातें हैं, जन्म के आने के साथ ही जीवन को भी देख पातें हैं। सबसे छोटी बहन मृत्यु,जो बेचारी भीषण भेदभाव की शिकार है। लोग जहाँ दोनों भाइयों के आने से खुश होतें हैं, मिठाइयां बांटते हैं, बलाईयाँ लेतें हैं। इनकी छोटी बहन ‘मृत्यु’ के आने से लोग गमजदा होते हैं, अकेले में रोते है, आपस में मिलकर रोते है। पर हाँ कभी-कभी कुछ लोग ‘मृत्यु’ के आने से भी खुश होतें हैं पर अपने पास आने पर नही बल्कि किसी जानी दुश्मन के पास जाने पर।
सामान्य तौर पर छुटकी (मृत्यु) नफरत की ही शिकार है। लोगों को फूटी आँख नही सुहाती। लोग इसे अपने आस-पास फटकने भी नही देना चाहतें। पर ये है बड़ी ढीठ! कोई चाहे लाख ना बुलाये। दूर भगाने का लाख जतन कर ले। भगवान से मन्नते मांगे, बड़े-बड़े विशषज्ञों (डॉक्टर्स) से सलाह ले ले। बड़े-बड़े शहर न्यूयोर्क, लंदन घूम जाये। पर ये कभी न कभी सभी के पास जायेगी जरूर। लोग चाहे इससे जितना भेदभाव करे पर यह किसी से भेदभाव नही करती। सभी के पास जाती है। जाती, धर्म, संप्रदाय, लिंग, अमीर-ग़रीब, देश-परदेश देखे बिना। पूरी की पूरी सच्ची सेक्युलर है। दूसरे लोगों की तरह नही जो खुद को सिर्फ सेक्युलर दिखाने में लगे रहतें हैं पर अंदर से होतें हैं कुछ और ही।
दोनों भाइयों जन्म और जीवन की आपस में ख़ूब बनती है। दोनों एक दूसरे का पर्याय हैं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे से है, क्योंकि जन्म के आने से ही जीवन भी आया या फिर जीवन के आने से ही जन्म आया। उफ़! मैं इस झंझट में नही पड़ना चाहता कि पहले कौन आया। ये तो वहीं बात हो गई कि पहले मुर्गी आई कि पहले अंडा…,खैर। बहन की अपने भाई ‘जीवन’ से बिलकुल भी नही बनती। दोनों एक साथ रह ही नही सकतें। दोनों भाइयों के बीच सब कुछ सही है, ये कहना पूरी तरह से सच भी नही है। दोनों के आने पर लोग खुशी मनाते हैं, मिठाइयां बांटते हैं, फलाना-ढिमका करतें तो जरूर हैं पर लोग उस समय सिर्फ ‘जन्म’ को ध्यान में रखकर ही खुशियाँ मनाते है पर बाद में जन्म को उतना तबज्जो नही देतें। सारा प्यार-दुलार ‘जीवन’ पर लुटाते हैं। लोग जीवन को ज्यादा-से-ज्यादा दिनों तक अपने पास रोककर रखना चाहतें हैं। इसी चक्कर में कहीं-न-कहीं ‘जन्म’ को भी लोग भूलने लगतें हैं। लेकिन फिर जीवन ही लोगों को याद दिलाता है कि मेरा एक भाई भी मेरे साथ है। फिर लोग जीवन को खुश रखने के स्वार्थ में ही सही सिर्फ दिखावे के लिए ‘जन्म’ के लिए उसके आने के दिन को एक विशिष्ट दिन मानकर एक ताम-झाम वाला आयोजन कर लेतें हैं। मोमबत्ती जला लेतें हैं, केक काट लेतें हैं, केक को अपने चेहरे पर भी मल भी लेतें हैं। इधर जीवन के नखरे के भी क्या कहने! इसको मनाने के पता नही क्या-क्या उपक्रम करने पड़तें हैं। अमीर लोग इसपे पैसे भी ख़ूब लुटा डालतें हैं। पर जीवन है कि अपनी मर्जी चलाने से बाज नही आता। यह अगर चाहे तो ग़रीब या कहें भौतिक सुख-सुविधा से विपन्न लोगों के पास भी लम्बे समय तक रुक सकता है या साहबजादों के पास चंद दिनों का मेहमान भी हो सकता है। कुछ समय के लिए अमीरों को यह भ्रम जरूर हो जाये कि उसने ‘जीवन’ अपने पास से जाने से रोक लिया है। पर उनका यह भ्रम ज्यादा दिनों तक नही रहता। जैसा कि मैंने पहले कहा जीवन की इसकी छोटी बहन ‘मृत्यु’ से बिलकुल भी नही बनती। दोनों एक साथ रह ही नही सकतें। जीवन की भी कहीं न कहीं इसमें मज़बूरी ही झलकती है। उसे पता है कि उसकी छोटी बहन ‘मृत्यु’ आएगी ही आयेगी तो ऐसे में उसे जाना ही होगा। यहाँ दोनों भाई-बहन में न बनते हुए भी भाई अपनी छुटकी की मदद ही कर जाता है और वह चला जाता है। तब बहना ‘मृत्यु’ आ पाती है।
अभी पिछले महीने की तो बात है। बॉलीवुड के दो महान सितारे जीवन को अपने पास रखने के तमाम प्रकार के प्रयासों में असफल हो गयें। जीवन की छोटी बहना ‘मृत्यु’ बार-बार दस्तक दे रही थी। अंततः भाई ‘जीवन’ने बहन ‘मृत्यु’ की मदद की। इन तीनो भाई-बहन की नियति भी यही है- ‘जीवन’ को एक न एक दिन जाना है, ‘मृत्यु’ को भी आनी ही है और ‘जन्म’ को याद रखने की अवधि लोगों के कर्मों पर निर्भर है।
कोई कपूर (ऋषि) बिछुड़ता है,
कोई इरफ़ान जाता है।
इस तमाशाई दुनिया से,
हर किसी का चंद दिनों का ही नाता है।
~ लेखक – विनय कुमार