कोरोना का रोना
रोते इंसानों के
आँखों से बहते आँसू
कह जाते हालातों को
बिन बोले।
तपती धूप में
प्यासे कंठ लिए
पाँवों में छाले लिए
घर जाने की आस लिए
भूखे प्यासे राहगीर
चलते जाते
मन से जलते जाते?
सेवाभावी लोगों से
मिल जाती
दो जून की रोटियाँ।
फिक्र का बोझ
उठाए
कर्ज की गठरी को
मन मे लिए
उतारने की सोच
वापस कर्ज की जुगाड़ में
पथराई आँखों से
विनती करता मानव
शिक्षा, धर्म, ज्ञान, को खूंटी
टांगता इंसान
सिर्फ कोरोना की
फिक्र करता।
बीमारियों से जूझते
इंसान को
खुद की बीमारियों से
कोई वास्ता नही
बस उसे तो कोरोना को
भगाना
क्योकिं कोरोना ने ही
उसे रोजगार से हटाया
और दुनियाँ के दरवाजों को
बंद करवाया है।
~ संजय वर्मा ‘दृष्टि’