चारों ओर से सवालों का बौछार था,
अपने ही व्यवस्था से बीमार था,
लेकिन रेल की पटरी से उठ खड़ा जवाब तैयार था,
मैं मजदूर था साहब!
अपने ही घर की छतों से दूर था,
बस रोटी के लिए मजबूर था।
परिस्थितियों का मारा था,
पर स्थितियों से नहीं हारा था,
सबको चुनौती देकर घर से निकल पड़ा बंजारा था।
बस अपनों का साथ था, हाथों में उनका हाथ था,
यही एक विश्वास था, भूख-प्यास सब पास था,
लेकिन न निराश था, पैरों का अलग ही बात था,
दिन-रात, रात-दिन करके लिख रहा इतिहास था,
भूलकर अपने छालों को चल रहा बेहिसाब था,
लेकिन एक दिन छालों ने रोक ही दिए मेरे कदम,
और कहा-थोड़ा रुक आराम तो कर,
लेकिन कहां पता था वो आराम- हाराम था,
हमेशा के लिए खो गया मैं भी एक इंसान था,
लेकिन दुनिया में मैं अनजान था,
बस मेरा एक ही नाम था- “मजदूर”
जी हां साहब!
मैं मजदूर ही था,अपने ही घर की छतों से दूर था,
बस रोटी के लिए मजबूर था,
बस रोटी के लिए मजबूर था।
~ ज्योति प्रसाद