अपने अंतःकरण में जिज्ञासाओं का बोझ लिए हुए
मैं चले जा रहा हूं खुद में खुद की सोच लिए हुए
महामारी के दरमियां जीने की सारी उम्मीदें खोकर
मैं खुद के आंसू पोछने लगा, अपनी आंखों से रोकर
जब सोच रहा था मैं कि मेरा जन्म ही क्यों हुआ
तभी मेरी पीठ पर सवार मेरी बच्ची ने मुझे छुआ
एहसास हुआ मुझे कि इसके सपनों के लिए मुझे जीना है
बह रहे हैं जो अश्क इन आंसुओं के घूँट को पीना है
ये छोटी हथेलियां मुझ में हौसलों का पंख लगा देती हैं
आंखें मिचने लगती हैं जब मेरी, तब ये मुझे जगा देती हैं
जिंदगी के सफर में मैं पहले ही थक कर चूर हो गया हूं
आज परिवार के संग पैदल चलने को मजबूर हो गया हूं
मीलों पैदल चलता रहा मैं, सरकारें सारी सो रही हैं
अपने पैर के छालों को देखकर आंखें फिरसे रो रहीं हैं
देहरी छोड़ कर आया था मैं परदेश, दो निवालों के लिए
आज फिर से वापस जा रहा हूं, साथ ढेरों सवालों को लिए
किसे बताऊं अपना दर्द, किसे सुनाऊं अपनी दास्तां
बस अपनी मंजिल पाने के लिये,मिल जाए पक्का रास्ता
जब सारी दुनिया कैद है घर में, तब मैं घर से कोशों दूर हूँ
बस इतना ही कसूर है मेरा, कि मैं सिर्फ एक मजदूर हूं।
~ सत्यम ओमर