इंसानी कठपुतलियाँ

इंसानी कठपुतलियाँ

इंसान बन रहा है कठपुतलियाँ।
इंसान बन रहा है कठपुतलियाँ।
जैसे कठपुतली करती है नर्तन
दूसरे के इशारों पर।
टिका है उसका जीवन
दूसरों की उंगलियों के सहारे।
साँस लेती है वो
अपने शरीर पर बँधे हुए धागों से
और वही करती है जो
उसका मालिक करवाता है।
ऐसे ही
हम सब भी कठपुतलियाँ हैं
जीवन की,
भगवान की बनाई हुई
जैसे मर्जी वैसे नचाता है वो
कभी हँसाता तो कभी रुलाता है वो
नित नए करतब दिखाता है वो
जिंदगी को अपने ही इशारों पर चलाता है वो
हम तो बस देखते रहते हैं
और नाचते रहते हैं
उसके किए गए इशारों पर।

अब इंसान बन गया है कठपुतलियाँ
कठपुतली बनने के साथ ही
मर गई हैं
उसकी अनंत इच्छाएँ
जिनके पीछे भागता था वो दिन-रात
खत्म हो गई है
उसके अंदर की मानवता
खत्म हो गई है उसकी संवेदना,
भावना और आत्मीयता
और इंसान दिन पर दिन हो रहा है
क्रूर, अतिक्रूर
क्योंकि इंसान अब
बन चुका है कठपुतलियांँ
उंगलियों के इशारों पर
और धागों के सहारे
नाचते-नाचते
वास्तव में अब इंसान
बन चुका है कठपुतलियांँ
जिसके अंदर ना तो हृदय है
और ना ही उसमें संवेदना
और भावना का कोई स्थान।
ये हैं इंसानी कठपुतलियाँ
हाँ, हाँ,
इंसानी कठपुतलियाँ।

~ शिम्‍पी गुप्‍ता

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