बिसरते नहीं हैं

बिसरते नहीं हैं

कलमकार अमित चौधरी भी पुरानी यादों की ही कुछ झलकियां इस कविता दर्शाईं हैं। आइए हम भी अपनी कुछ यादें इस कविता को पढ़ जीवंत करते हैं।

बिसरते नहीं है, दिन-रात मेरे
बचपन की बातें, खेल-खिलौनें
खेलते फिरते, साँझ-सवेरे।

अम्मा का आँचल, ममता की छायें
पिताजी की स्नेहिल फटकारें
थप्पड़-तमाचे, रुला कर जो जाते
दादी मुझे प्यार से फुसलाती
दादा जी भी झूठा, गुस्सा दिखते।

स्कूल अपने,जाने में होते हज़ारो नखरें
आचार्य जी जो पाठ पढ़ाते
नही याद होता, बहुत मार खाते।

दादी का राठी से, खाना जुराना
जुरा करके, हाथो से अपने खिलाना
अम्मा की रोटी का स्वाद सुहाना।

पिताजी का टांगो पर झूला झुलाना
बिठाकर कंधो पर,मेला घूमना
ढेरों मिठाई वहाँ से ले आना
रखी मिठाई चुरा करके खाना
पूछती अम्मा झठ मुँह कर जाना।

संघी-संघाती संग मौज उड़ाते
वे नदियों-तालाबों के सैर-सपाटे
कंकड़ उठाते, नदी में गिराते
उठे बुलबुला, खूब ताली बजाते।

खाने-पकाने का खेल अनोखा
सभी कुछ न कुछ अपने घर से ले आते
मिल कर सब अच्छी सी खिचड़ी पकाते
खाते-खिलाते, धूम मचाते।

कहाँ रह गया, अब वे धूम-धड़ाका
मासूम मन, ठेरों जिज्ञासा
काश वही दिन, फिर लौट आये
एक बार और हमे बचपन मिल जाये।

~ अमित कुमार चौधरी

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