आधी रोटी भी
नहीं नसीब
जिस इन्सान को
उसका नाम मजदूर है।
शायद, इसलिए
ठूस दिए जाते हैं
ट्रकों में भर-भर
या, छोड़ दिए जाते हैं
भटकने को भूखे-प्यासे
रेंगने को तपती धरती।
एक मजदूर का
खटिया, बिछौना, बर्तन
बक्सा-पेटी, छप्पर
सब के सब
उजाड़ दिए जाते हैं
जैसे, यहाँ कुछ पहले से
था ही नहीं
और मजदूर को
सैकड़ों मिल
चलने को पैदल
झोंक दिए जाते हैं
सुनसान सड़कों के हवाले।
मासूम बच्चे, बूढ़े
गर्भवती स्त्री
सभी अपने अंतस्तल में
अपनी पीड़ा को सहेजे
देखते रहते अट्टालिकाओं को
जिनके मेहनतकश हाथों ने
रुचि से सवारा था
आज उन्हीं के लिए
सिर पर छप्पर का
कोई कोना
अट्टालिका का खाली नहीं है ।
सियासत की गलियाँ भी
मजदूर की ओर पीठ
किए खड़ी है
कि, अभी मजदूर तुम्हारी
जरूरत नहीं है
जाओ, जाओ, जाओ
मजदूर अपने घर
तुम्हारे लिए मेरी
अवसरवादी आँखों में
ना तो कोई
अभी अवसर हीं दिख रहा है
और ना हीं मेरी आँखों में
तुम्हारे लिए अकारथ के आँसू हैं
बस यही समझ लेना
मेरी अमानवीय विवशता हीं
तुम्हारी मजदूरी है ।
~ अभिषेक कुमार ‘अभ्यागत’