अख़बारों की फिर सुर्खी मिली।
आज फिर एक गरीब की अर्थी चली।
ओढ़ अरमानों की बलि।
एक गरीब की अर्थी चली।
आखिर क्या जल्दी थी,
दुनियां छोड़ जाने की।
सायद कफ़न के महंगे हो जाने की।
थी, पहले से महंगाई की मार,
गरीब और बिन रोजगार,
युद्ध था, ये भयानक
चढ़ गया फिर गरीब, गरीबी की बलि।
ओढ़ अरमानों की बलि।
एक गरीब की अर्थी चली।
पेट-पीठ हर अंग कंकाल पर हावी था।
फिर क्यों जनाजा उसका इतना भारी था।
आंखे इतनी काली और गहरी थी।
कोई सूरमा नहीं, वो सपने पहरी थी।
घर भर के ख्वाबों वो हृदय में रक्खे मरा था।
सबके सपनों का भोझ, उसपर हावी था।
तभी जनाजा उसका इतना भारी था।
गांव में उसकी टपकती छत थी।
घर पर बीबी, बच्चे समेत, बूढ़ी मां थी।
सबकी फिक्र संजोए, शहर को निकला था।
महामारी के इन दिनों प्रदेश में फस चुका था।
संक्रमण का ना था, उसमे भय,
मौत से ना वो डरा था।
शायद अनुमान था।
आखिर चढ़ना है, उसे एक दिन
गरीबी लाचारी की बलि,
ओढ़ अरमानों की बलि।
एक गरीब की अर्थी चली।
~ पूजा कुमारी बाल्मीकि