अजब है ना, ये कमाल है
ना रहती हैं याद तारीखें।
ना याद रहते, ठीक से दिन और वार।
हर दिन ही दिल को लगे है रविवार।
शांति, संयम और घर ही
है स्वस्थ जीवनोपचार।
ना बाहर की बातें ना यारों का दीदार,
ना सड़कों पर लंबे-लंबे जाम
ना ही कारों के हॉर्न की चीखपुकार।
हर तरफ दिखे लॉकडाऊन का ख़ुमार।
दिखे केवल शाख़ पे,
बैठे पंछियों का प्यार।
कहीं दूधिया, कहीं आसमानी,
नीले-नीले बादलों के दिलचस्प बाजार।
गुलमोहर की सूनी-सूनी परछाइयाँ,
नीम की हरी-भरी गुच्छियों के गलहार।
दुपहरी ओढे अमलतास के सुनहले सोनहार।
नीरव शांत सड़कों पर चटख घाम निखार
सुबह, दुपहरी शाम चिड़ियों की चूँ-चूं गुंजार
पेड़ों पर फुदकती गिलहरियों का संसार
पार्क के पानी में छप-छप करते
कबूतर और उनके यार।
बाहर की दुनिया में इन दिनों,
सिर्फ़ उन्हीं का है अधिकार।
मन कहे प्रकृति हमसे,
ले रही है अत्याचारों का प्रतिकार।
इन कोलाहल रहित दिनों की एक ख़ास बात
सबने जीने के सीखे अलग-अलग गुर
कम में भी हम सब कर लेते गुजर बसर।
आधुनिकाएं बना रहीं हैं फरमाइशी खाना।
ना रेस्तराँ के मसाले, ना खानों के ऑर्डर।
अब माँ बन गई हैं कुशल पाक कलाकार।
और बच्चे हैं उनके मददगार।
गुनगुनाती हुई हर पकवान में लपेटतीं स्नेहहार।
चटख रंगों की कूँचियाँ, कैनवास के शोख़ चित्रहार।
हारमोनियम की धुनें और मधुर गीत गुंजार।
ऑनलाइन भी काम कर रहे दफ़्तरों के कामगार।
खाने में नहीं कुछ तो, खा लिया दाल चावल अचार।
थोड़े में भी काम चल जाता है,
फिर भी भागते रहते थे पहले बाजार।
घर में ही टिक्की, बताशे, पाव-भाजी हो रहे तैयार।
सब मिलजुलकर कर रहे है
घर के काम काज व्यापार।
इन दिनों में सबको जीना,
अच्छे से आ गया है मेरे यार।
सब अंधी दौड़ में क्या,
बिलावजह भागे जा रहे थे?
जो अचानक ही थमी रफ़्तार।
जो भी है थकी-थकी सी,
जिंदगी में आया है सुंदर निखार।
~ वंदना मोहन दुबे