हो गए हैं अजनबी से अपने ही इस शहर में
कौन अब किसको यहाँ जानना है चाह रहा
जो कभी मिलता था हमसे स्नेह और प्यार से
वही आज देखो देख कर आँख है चुरा रहा
सोचने की बात है ये क्यों कब कैसे हुआ
हर कोई यहाँ अपना अपना ज्ञान है बतला रहा
आदमी ख़ुद आदमी से यूँ डरेगा इस कदर
मानवता के आधार पर सवाल है उठा रहा
जीवन मिला था मनुष्य का मानवता ही धर्म था
धर्म पीछे रह गया बस इंसान बढ़ता जा रहा
पशु पक्षियों से प्रेम करना मानव का सेवाधर्म था
उन बेजुबानों को ये इंसान मार मार खा रहा
देखा कभी ना डर और भय उस बेजुबान की आँख में
बस उसी का दंड है कि अब हर समय घबरा रहा
समझी ना मनोदशा कभी उस बेजुबान जीव की
अब खुद ही उस दशा में अपना जीवन बिता रहा
~ शंकर फ़र्रुखाबादी