निरालंब तुम रहना सीखो
औरों का क्या दम भरना
अपने नैया खुद हीं खेवो
आत्म निर्भर जग में रहना
औरों के बल पर जो बढ़ता
शक्तिहीन कहलाता है
जंगल में बोलो गीदड़ कब
सिंहों सा आदर पाता है
अपने भरोसे जीने वाले
उन्नति के अधिकारी रहे
जैसे जल में तूंबी रहती
वैसे सब पर भारी रहे
सब वरदानों से अनुपम है
निज निर्भरता का वरदान
ऊँचे कुल या रूप से देखो
नही बना है कोई महान
भाग्य भरोसे रहने वाले
पीछे रह जाते हैं रण में
राम ने था जब धनुष उठाया
पुल बँध आया सागर जल में
देश भी है तभी विकसित होता
जन जब उस के श्रम करते हैं
सब मिल कर जो बोझ उठाएं
पर्वत भी लघुतर लगते हैं
आओ मिटाएं अवगुण सारे
दीपक की लौ सम जल जाएं
बढ़े तिरंगा नभ में उपर
आओ मिलकर देश बनाएं
~ मधुकर वनमाली