आदत-सी हो गई है मुझको तेरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
मिलना है हमारा बेहद जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
सच में तुम हो गई हो मेरी मजबूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
सर्द मौसम की गुनगुनी धूप-सी हो तुम
तुम समझती क्यों नहीं हो
इश्क़ हक़ीक़ी हो तुम ही मेरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
किन्हीं भी हालातों से डरना नहीं जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
सागर-सी गंभीरता भी है जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
लहरों का उठना और गिरना भी है जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
हाथ का हाथ पकड़ना भी है जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
अल्हड़ नदी-सा बहता जीवन भी है जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
भीतर की ओर मुड़ना भी है जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
अंदरूनी महक भी है बहुत ही जरूरी
तुम समझती क्यों नहीं हो
~ डॉ. मनोज कुमार “मन”