केरल में मलप्पुरम जिले में एक वन अधिकारी मोहन कृष्णन्न ने सोशल मीडिया पर हथिनी की दर्दनाक मौत से जुड़ी ख़बर पोस्ट की थी। उन्होने फेसबुक पोस्ट में लिखा, ”हथिनी ने सब पर भरोसा किया। जब उसके मुंह में वो अनानास फटा होगा तो वह सही में डर गई होगी और अपने बच्चे के बारे में सोच रही होगी, जिसे वह 18 से 20 महीनों में जन्म देने वाली थी।”
यह घटना मानवता पर कई प्रश्न उठाती है। हमारे हिन्दी कलमकार भी आहत हुए हैं और अपनी संवेदनाओं को अपनी कलम से व्यक्त किया है।
कलमकार अशोक शर्मा वशिष्ठ लिखतें हैं- असहाय हथिनी
यह कैसा इंसान है किस बात का गुमान है
चंद सिक्कों की खातिर बन गया हैवान है
असहाय हथिनी की हत्या करके हर लिए प्राण हैं
दे दिया अपनी नीचता का प्रमाण है
यह कैसा अन्नास और पटाखों का महादान
जिसने हर लिए अबोधों के प्राण
गर्भवती हथिनी और पेट मे पल रहे
निर्दोष को मारकर बन बैठे महान
यह कोई वीरता नहीं कि ले ली बेजुबान की जान
मानवता शर्मसार है इंसान बना शैतान
मानवता के शुभचिंतक इस कृत्य से हैं परेशान
अपने स्वार्थ हेतु बना,जान कर अनजान
मानवता के भेष मे छद्म रखी अपनी पहचान
मानवता शर्मिंदा हैं
इंसानियत के दुश्मन जिंदा हैं
भगवन मेरी यही कामना
इंसान पथभ्रष्ट न हो
यही है मेरी याचना और आराधना
कलमकार परमानन्द कुमार लिखतें हैं- हथिनी पर आघात
इंसान इंसान ना रहा
यमराज बनते जा रहा
यमलोक भी शरमा रहा
भगवान भी घबरा रहा
अब क्या करूँ इंसान का
मेरा पद भी संभाल रहा!
वो दिन भी अजीब थे
नग्न वेश में, इंसान थे
काल भी पाषाण थे
पाषाण भी भगवान थे!
अब दिन वो गुज़र गया
मौसम वो बदल गया
हाथी मेरे साथी कंबख्त
वो गीत भी दहल गया!
मानव तो वही है,
बस रूपांतरण हो गया!
शूट बूट में वो
अब दानव हो गया!
परिवर्तन हो गया
युग वो बदल गया
गीता के पाठ का
स्मरण हो गया!
परिवर्तन,संसार का नियम है!
इंसान इंसान ना रहा
यमराज बनते जा रहा
यमलोक भी शरमा रहा
भगवान भी घबरा रहा
अब क्या करूँ इंसान का
मेरा पद भी संभाल रहा!
भगवान लगा रहा गुहार!
हे मानव! मुझे बख्श दो,
मेरे पद की प्रतिष्ठा,
कदाचित् ना कलंकित करो!
मानव हो मानव रहो।
दानव ना बनो!
एक करोना, सह ना सके।
कंस रावण तो ना बनो!
कलमकार डॉली सिंह लिखतीं हैं- निष्ठुर मानवता
भूख से व्याकुल थी वह हथिनी,
मानव को सहृदय सोच कर आई।
क्या दोष था उस भूखी मां का,
जो मानव ने निर्ममता दिखलाई।
विस्फोट हुआ मुख में ऎसा,
सुलग उठी थी वह बेजुबान।
फल समझ जिसे खाया था,
संग तड़प उठी थी दो जान।
मां मैं भूखी ही रह जाती,
क्यों तुम इस डगर पे आई।
मेरी भूख की खातिर ही,
तुमने अपनी जान गवाई।
तड़प रही हो क्यों मां तुम,
अब मानव धरती से दूर चलो।
तारों की दुनिया में लेकर,
मुझको अपने संग ले चलो।
हे मानव! क्या कारण था?
क्यों तुमने निर्दयता दिखलाई?
शर्मशार किया मानवता को,
तुमको तनिक हया ना आई?
पशु होकर भी उसने,
जब पशुता न दिखलाई।
फिर कैसे मानव तुमने,
मानवता की आहुति चढ़ाई।
कलमकार भरत कुमार दीक्षित लिखतें हैं- हे! प्रभु अब न्याय हो
वो पूज्य थी, गर्भ से थी, दोहरी पूज्य थी,
वो पेट से थी, वो पेट की भूख से भी थी,
वो बेज़ुबान थी, इंसानी फ़ितरत से अंजान थी,
फँस गई वो, नर पिशाचो के जाल में थीं।
वो भटकी थी, महज़ क्षुधा शांत करने को,
उसे क्या पता था, सन्नाटा छा जाने को है,
चरित्र, मस्तिष्क, ज़ेहन से अपंग लोगों ने,
कुत्सित सोच का परिचय दिया, जाहिल से लोगों ने।
उस हथिनी का महज़ मनोरंजन के लिए,
जीवन छीन, सब कुछ छीन लिया, किस लिए,
एक नही दो जिंदगिया थी वो जनाब,
मातृत्व सुख पाने से पहले, काल ने लीला, किस लिए,
बन गई नर पिसाचो का मोहरा थी जो वो,
प्रतिशत में वो साक्षर कहे जाते थे वो,
हरकतें वो निरक्षर से बदतर कर गए,
वो स्तब्ध, शांत, बहुत कुछ समेट के चल दी,
किसी को ना कुछ कहा, सीधा जल समाधि ले ली,
वो बेज़ुबान नही रहा, सोच में घर कर गया।
स्तब्ध हूँ, विचलित हूँ, आहत हूँ, व्याकुल भी हूँ,
दरिंदों का हश्र क्या हों, सोच कर आकुल भी हूँ,
उस बेज़ुबा की मौत का, मंजर कहा भूलता अब,
जब भी देखो, जब भी सोचो, खून खौलता अब,
हे प्रभु अब न्याय हो, मुक़दमा चले,
अदालत तेरी हो, सजा अविलम्ब हो,
दंड भी ऐसा मिले, कि दंड भी झुंझला उठे,
आने वाली सात पुश्तें, हश्र से थर्रा उठे।।
कलमकार नवाब मंजूर लिखते हैं- सोचो हम किधर जा रहे हैं?
पढ़े लिखे लोग भी क्रूर हुए जा रहे हैं
अखबारों में ऐसी खबरें दिख जा रहे हैं
देख सुन हमारे हृदय द्रवित हो जा रहे हैं,
ठहरो! सोंचो हम किधर जा रहे है?
क्या इसलिए हम मानव कहला रहे हैं?
बेजुबानों के प्राण पहले भी लेते थे
अब फल में बम बांध के उड़ा रहे हैं!
सोचों हम किधर जा रहे हैं?
वह हथिनी गाभिन थी, बच्चा था पेट में
खिला दिया अनानास में भर के बारूद….
एक पढ़ें लिखे केरल प्रदेश में।
साक्षरता को शर्मिंदा किया है
हमें हमारे अहंकार ने अंधा किया है।
जरा सोचो हमने तुमने क्या किया है?
उसकी पीड़ा उसकी भावनाओं,
उसकी ममता का माखौल उड़ाया है!
जो भोजन में बम बांध उड़ाया है,
सारी मानव जाति को कटघरे में लाया है।
सोचो हम किधर जा रहे हैं?
हमसे समझदार तो वो बेजुबान निकली!
पानी में जा त्यागे प्राण…
कर सकती थी आवेश में कोई बड़ा नुक़सान
हम सिर्फ कहने को ही रहे अब इंसान!
इंसानियत तो वो दिखा गई
हमें बहुत कुछ सिखा गई!
पर हम सीखें तब न?
अहंकार ने घेरा है
स्वार्थ ने अंधा किया है
प्रकृति से खिलवाड़ का सबने धंधा किया है!
सोचो हम किधर जा रहे है?
आने वाली पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं?
पढ़ें लिखे लोग भी क्रूर हुए जा रहे हैं।
ऐसा कब तक चलेगा?
कोई कुछ बोलेगा?
दिनों-दिन अपना स्तर गिरा रहे हैं
फिर भी नहीं हम शर्मा रहे हैं
एकदम बेशर्म हुए जा रहे हैं
ऐसे कृत्य पर भी हीं हीं हीं मुस्कुरा रहे हैं
सोचो हम किधर जा रहे हैं?
कलमकार डॉ कन्हैया लाल गुप्त ‘किशन’ लिखते हैं- मानव तूने क्या किया?
मानव तूने क्या किया
कौन सा ये परिचय दिया,
अपने क्षुद्र स्वार्थ के खातिर
हस्थिनी का वध किया,
यह पाप ही नहीं जघन्य है
गर्भ में पल रहा था जन्य है
किस लिप्सा ये अधम है
कौन सी मानव परिचय है
होता बड़ा गहरा आश्चर्य है,
तेरा यह रुप ठीक नहीं है
न आने वाले पीढ़ी पर ठीक है
यह मानवता नहीं दानवता है,
कदाचित दानव भी न करते हो,
शिवि के वंशज का यह आचरण
कहीं से भी ठीक नहीं है विपरीत है,
शर्म कर, विचार कर, पीढ़ी सुधार कर,
उचित अनुचित का मन में ध्यान कर
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SWARACHIT960A – असहाय हथिनी
SWARACHIT960B – हथिनी पर आघात
SWARACHIT960C – निष्ठुर मानवता
SWARACHIT960D – हे! प्रभु अब न्याय हो
SWARACHIT960E – सोचो हम किधर जा रहे हैं?
20SUN00245 – मानव तूने क्या किया?