मुकेश बिस्सा रचित दस कविताएं

मुकेश बिस्सा रचित दस कविताएं

१) आदमी बिखर गया

वो जाने किधर आया हैं
आदमी ही बिखर आया हैं।

मंजिले अजीब सी लगती हैं
अरसे बाद कोई घर आया हैं।

आस उसकी निराश हो गई
खाली हाथ कोई आया हैं।

वो गया पाने की तलाश में
हौसला हार कर आया हैं।

यादें फिर घर कर गई है
आंसुओं से आंख भर आयी हैं।

२) संबंधों की माला

ज़िन्दगी में कच्चे धागों से
बंधे मज़बूत सम्बन्ध
तो कभी मजबूत धागों से
बंधे कच्चे सम्बन्ध
बन कर फल कभी
थोड़े कच्चे तो कभी थोड़े पक्के
लटकते अधटूटी टहनियों से
दिखावी सम्बन्ध
कभी जज्बाती तो कभी बनावटी
कभी दिल के तो कभी मन के
कभी धन के तो कभी तन के
कभी करवटों में बदलते पुराने सम्बन्ध
कभी राहों में कभी मंजिल पर
कभी भीड़ में कभी तनहा दरख्तों पर
बादलों जैसे उमड़ते घुमड़ते
अपनी मर्जी से बरसते सम्बन्ध
कभी धूप तो कभी छांव
कभी मजबूत इरादे तो कभी कांपते पाँव
कभी मर्मस्पर्शी छुवन
तो कभी दिमागों के ख्यालों पर
कभी जानेपहचाने तो कभी अनजाने घाव
कभी पिघलते रिश्तों की गर्मी में खुद सम्बन्ध
कभी मलहम तो कभी दवा
कभी दुआ तो कभी नमाज़ों में शामिल सम्बन्ध
वो सम्बन्ध तो ज़िंदगी से बन गए हैं
वो ज़िंदगी जो सम्बन्ध में बदल गए हैं
वो सम्बन्ध जो गुड़ की मिठास से हो गए हैं
वो सम्बन्ध जो मिर्च की कडुवाहट से हो गए हैं
वो सब सम्बन्धों को ज़िंदगी का सुकराना है
कैसे भी हो सम्बन्ध ज़िंदगी का साथ तो निभाना है

३) मौत का डर होना चाहिए

अपने ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग
औरों के सुख दुख का असर होना चाहिए।

दुनिया किसी तलाश में रहती है रात-दिन
किसी की आंख का असर होना चाहिए।

माहौल में किसी को किसी की ख़बर नहीं
चलते हैं साथ मगर हमसफ़र होना चाहिए।

लोग नापने चले हैं सागर की सीमाएं
अपने क़द पे थोड़ा नज़र होना चाहिए।

जिंदगी की राह में ठोकरें होती हैं मंज़िलें
रास्ते में मौत का भी डर होना चाहिए।

४) हवाओं का ये डर अब नहीं रहेगा

इक दिन हार जाएगी ये बीमारी
हवाओं का ये डर अब नहीं रहेगा।

खौफ का असर कुछ दिन और हैं
शहर सहमा हुआ अब नहीं रहेगा।

हक़ीक़त जान जाएगा बीमारी की
हर इंसान बेख़बर अब नहीं रहेगा।

बंदिशें जल्द खत्म होगी हमारी
असामाजिक मानव अब नहीं रहेगा।

पुराने असूलों पे लौट आना ही होगा
आकाश घिरा हुआ अब नहीं रहेगा।

यहाँ फिर लौट आएँगी बहारें
मेरा सूना ये घर अब नहीं रहेगा।

५) वो सुबह कभी तो आएगी

सबका वक़्त बदलता है
वो सुबह कभी तो आएगी ।

आज चाहे वक़्त जैसा भी हो
वो सुबह कभी तो आएगी।

हर जंग जीतकर दिखाऊंगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

आज चाहे वक़्त जैसा भी हो
वो सुबह कभी तो आएगी।

हर जुबां पर मेरा नाम होगा
वो सुबह कभी तो आएगी ।

आज चाहे वक़्त जैसा भी हो
वो सुबह कभी तो आएगी।

कल वक़्त बदलेगा मेरा भी
वो सुबह कभी तो आएगी ।

मजहबों में कोई भेद न होगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

इंसान कोई भूखा न सोएगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

कालाबाजारी तब न रहेगी
वो सुबह कभी तो आएगी।

राष्ट्रप्रेम का भाव रहेगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

सीमा पे वीर शहीद न होगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

आयुधों से जंग न होगी
वो सुबह कभी तो आएगी।

वसुधैव कुटुम्ब की मन्त्र होगा
वो सुबह कभी तो आएगी।

६) ये ही आरजू है

आरजू है कि सदैव हँसता खिलखिलाता रहूं
मेरी खुशी मतलबहीन प्रतियोगिताएँ न बांट ले।

आरजू है मेरे बचपन की अवधि कम न हो
ये दुनिया कंप्यूटर की मेरा बचपन लूट न लें।

आरजू है कि हर संबंध फेसबुक व्हाट्सएप्प तक न रहे
वक्त की कमी से हमारा हर रिश्ता न ओझल हो जाये।

आरजू है कि हर बागबान दुनिया में लहलहाता रहे
ये प्रदूषण की आंधी उसकी महक व रूप न लूट ले।

आरजू है कि रुपये पैसे को ज्यादा अहमियत न दे
शरीर हमारा एक मशीन की जानिब न हो जाये।

आरजू है कि हम पाश्चात्य विचारों से दूर रहें
बस अपने संस्कार और भारतीयता न कभी भूले।

७) याद अपने रब को

कभी सुख की भोर
कभी दुख का जोर
करता हूँ नमन
अपने ईश्वर को

हर रोज की मुश्किलें
दिन भर की थकान
याद करता हूँ
अपने रब को

कभी घबरा जाता असमंजस से
कभी सिहर जाता उलझन से
अपने परवरदिगार के आगे
सजदा कर देता हूँ

कभी सोच में लगा रहता हूं
कभी अपने आप मे खोया रहता हूं
मैं अपने ईश्वर को
हाथ जोड़ चला आता हूँ

कभी अपनो का संग
कभी परायो का रंग
अपने भगवान के आगे
अरदास कर देता हूँ

८) ऐसा भी कभी कभी

एकाकीपन में अक्सर ही
धड़कने मेरा साथ देती हैं ।
औरों की खुशी देखकर ही
दिल मेरा गम बाँट लेता है ।
जब आगोश में नींद के
सपने पूरे नहीं होते हैं।
जब ख़तम नहीं होता
किसी से मुलाकातों का सिलसिला।
पूरी मुस्कुराहट के साथ ही
मेरी जिंदगी साथ देती है ।
थोड़ा मेरा मन सहलाकर
खूबसूरत यादें उम्मीद पैदा करती हैं।
काली रातों की रुसवाईयाँ
मुझे जब इतना डराती हैं ।
बेबस ही आँखों के आंसू
प्यार का अहसास दिलाता हैं।
एक प्रकाश की डोरी
हंसने का हौसला दे देती हैं।
बीता कोई एक हसीन पल
सहला कर आगे बढ़ने देती हैं।

९) नज़रें झुका दो

ना नशीली निगाहों से देखो इधर
पल है अब भी नज़रें झुका दो

न दूर रखो वफाओं का सिला
आज हमको हमीं से मिला दो

तकल्लुफ ये कीजिए न सनम
जर्रा भर ज़िन्दगी को उड़ा दो

एक अकेला मौसम है खोया हुआ
आपको ग़र मिले तो इधर बुला दो

एक शिकवा यही दर्द ज्यादा है कम
सोये ज़ख्मों को फिर से हरा कर दो

नाम तेरा न औरों की दुनिया में हो
अरदास में अपनी बाहें उठा दो

१०) वक़्त बीत रहा है

लाइफ में पैसे कमाने में
फिर उसे गंवाने में
वक्त बीत रहा है।

रुतबा अपना बढ़ाने में
अखबारों में छाने में
वक्त बीत रहा है।

आदर्शवादी बनने में
उदाहरण पेश करने में
वक्त बीत रहा है।

सारे रिश्तेदारी निभाने में
मूर्खता ही करने में
वक्त बीत रहा है।

पत्नी को बहलाने में
फरमाईश पूरी करने में
वक्त बीत रहा है।

वाट्सअप से ज्ञान देने में
फेसबुक पर पोस्ट करने में
वक्त बीत रहा हैं।

जीवन की आपाधापी में
तजुर्बा कमाने में
वक्त बीत रहा है।

घर से आफिस में
ऑफिस से घर आने में
वक्त बीत रहा है।

कविताएं लिखने में
अखबारों में छपवाने में
वक्त बीत रहा है।


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SWARACHIT687Aआदमी बिखर गया
SWARACHIT687Bसंबंधों की माला
SWARACHIT687Cमौत का डर होना चाहिए
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SWARACHIT687Gयाद अपने रब को
SWARACHIT687Hऐसा भी कभी कभी
SWARACHIT687Iनज़रें झुका दो
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मुकेश बिस्सा की दस कविताएं

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