बढ़ रही हैं मुश्किलें, पहचानने में हमें
हम कैसे शख्स, खुद ही नहीं जानते।
आरजू और तम्मानाएँ लिए बैठे थे, उन्हें हमपर था यकीं
उठ गया कब खुद से यकीं, यह हम नहीं जानते।
खुद से ही खफ़ा होते हैं, ख़ता कर लेने के बाद
खुद ही नाराज़ होते हम, खुद ही खुद को मनाते।
नाराज़ तो वो भी हैं, जिनसे किया है वादा हमने
कर गुज़रूंगा वादा-ए-खिलाफ़ी, माहौल हैं यही बताते।
किया था माफ़ हमें, ख़ता भी जानने के बाद
साथ उनके हम क्यों नहीं चलते, जो सही राह हैं दिखाते।