वह कविता है ~ साकेत हिन्द
जब बहुत कुछ कहना है
और शब्द कम पड़ जाएँ
हृदय से जो बात निकले
वह कविता है।
जब दूरियाँ बढ़ जाती हैं
और विरह वेदना सताए
मन में जो पीड़ा उठे
वह कविता है।
जब खुशियाँ घर आती हैं
और रोम-रोम खिल जाए
जी जो गीत गुनगुनाए
वह कविता है।
जब आदरणीय पूजे जाते हैं
और मन हर्षित हो रम जाए
आराध्य भक्ति में जो भाव जगे
वह कविता है।
जब सन्नटा पसरा होता है
और रातें काजल सी काली बन जाए
चित्त को जिससे शांति मिले
वह कविता है।
जब प्रेम नापना होता है
और पैमाना खो जाए
दिल से जो अनुमान लगे
वह कविता है।
कविता ~ स्नेहा धनोदकर
किसी ने पूछा कभी
क्या होती है कविता
किसी के लिए कुछ पंक्तियाँ
किसी के दिल का हाल
कोई लिखें जज़्बात सारे
कोई पूछे इसमें सवाल
किसी के लिए सुबह कि धूप
किसी कि सुहानी ढलती शाम
कोई लिखें गुमनामियत अपनी
किसी के लिए कमाए नाम
किसी के लिए चाहत
तो किसी को मिले राहत
कोई ढूंढे इसमें खुद को
कोई पढ़ लें आयत
कभी खुशबू सी महकती
कभी लहरों सी लहराती
ये कविता कभी किसी को
आईना भी दिखाती
आशिक़ के लिए आशिकी
संत के लिए कहे पूजा
सब कुछ कर दे बयां
कविता सा ना कोई दूजा
कविता ~ सविता मिश्रा
अपने कुवारें अहसासों को
शब्दों से सजा धजा कर
सबके समक्ष रखती हूँ
हाँ, मैं कविता लिखती हूँ
मेरे अन्तर मे बहती
आवेगों की निर्मल सरिता
भावो संग गोते खाकर
प्रस्फुटित होती नित नयी कविता।
भावनाओं का ज्वार है कविता
शब्दों से गुथा हार है कवित।
कभी विरहणी का दुख दिखलाती
कही प्रियतम की प्रीत जगाती
रस छंद और अलंकार से हो सुसज्जित
श्रृंगार की नित नवीन विधा बन जाती
कही हास्य का पहन के जामा
होठों पे मुस्कान ले आती
तमाम विधाओ से सज्जित है
कविता का सुन्दर संसार
असीमित है इसके शब्दों का भंडार
कभी कलम की ताकत बन
अत्याचार पे करती प्रहार
कभी रौद्र रस मे पग कर
शस्त्रों से भी करती गहरे घाव
रूप अलग है, रंग अलग है
अलग अलग है इसके भाव
कवि ~ मधु पाण्डे
कविता लिखने वाले कभी किसी का बुरा नही कर सकते,
क्योंकि वो सच्चे दिल और समस्त अनुभवों से परिपूर्ण होते हैं
नही लेते वो किसी से बदला न जलते हैं बदले की आग में
बस उतार देते हैं कागज़ पर अपनी सारी पीड़ा और अपमान।।
सबका दुःख दर्द बख़ूबी समझ जाते हैं,
ये जो तुम ख़ुशी, पीड़ा, प्रेम, विरह महसूस करते हो न कविताओं में,
दरअसल ये हम सबकी जिंदगी से जुड़ा होता है
कवि की निजी जिंदगी से नहीं।।
नहीं बन सकी कविता ~ विनय सिंह
नहीं मिली तुम मुझे
नहीं बसा ख्वाबों का शहर
लफ़्ज-लफ़्ज बिखर गए
नहीं बन सकी कविता कोई
बढ़ती रही टीस जहन में
अधूरा रहा श्रृंगार
बढ़ता रहा करुण रस।
बिखरे -मिटे एक-एक भाव
नहीं बन सका जीवन
नहीं बन सकी कविता कोई।
मैं कविता ~ संजू पाठक ‘गौरीश’
मैं कविता, नारी रूप धारी
छंद, अलंकार रस से परिपूर्ण
मैं कविता!
नीरस, शून्य वातावरण को गुंजारित करती
मैं कविता।
योग, वियोग, संयोग से उपजी
मैं कविता।
वेद उपनिषद ग्रंथ, ऋचाओं को छंदबद्ध करती
मैं कविता।
आह, कराह संताप से उपजे उद्वेलन को शांत करती
मैं कविता।
नदियों, झरनों, तालाबों, सागरों में कलकल ध्वनि करती
मैं कविता।
गीत, संगीत समारोहों में कानों में रस घोलती
मैं कविता।
श्रंगारित, मनमोहक आकर्षक, सौंदर्यमयी नारी सी
मैं कविता।
कवि सम्मेलनों के कवियों की आवाज का आगाज़ करती
मैं कविता।
तभी तो कविता दिवस पर
कवियों से कविता की रचना कराती
मैं कविता।